आंतरिक दिव्यता जगाओ

आंतरिक दिव्यता जगाओ

हे मानव! जीवन भरपूर जीना है घूँट-घूँट पी लेना है, आनन्द ही आनन्द लेना है और आनन्द ही देना है। कष्ट मुसीबतें समस्याएँ हैं ही कहाँ? ज़रा सोच तो पल में मर गया तो सब खत्म। तो क्यूँ नहीं जीते जी ही सोच लेता कि समस्याएँ कैसी? इनसे व्यथित होकर इन्हें बखानना, मुसीबत मानना ही भरपूर जीवन जीने से भागने का बहाना मात्र है।

समस्याएँ जीवन का नमक हैं, सौन्दर्य हैं, परीक्षाएँ हैं जिन्हें देकर फल की प्रतीक्षा की भी चिंता नहीं। परीक्षाएँ दे पाना ही अपने आपमें वह आनन्द है जो अंदर की दिव्य शक्ति को जगाने में सक्षम है। धैर्यपूर्वक व सानंद गुजरना कठिनाइयों से, अंदर की दिव्यता से जुड़कर कष्टों को नई परिभाषा देना, नए पंख देना, उदाहरण बन जीवन को सार्थकता देना – यही तो मानव होने की श्रेष्ठïता है मानव जो सर्व सम इस श्रेष्ठता व दिव्यता का विस्तार ही जीवन का सच्चा धर्म है। अधिकतर यह मान लिया जाता है कि धार्मिकता का मार्ग अपनाने से संसार से विमुख या विरक्त होना होता है। सच्चाई तो यह है कि मोह व लिप्तता छोड़नी है। श्रीराम, श्रीकृष्ण या राजा जनक आदि ने कहाँ संसार त्यागा। मानव बुद्धि की जोड़-तोड़ से दिव्यता या पूर्णानंद की प्राप्ति असम्भव है। इसका एक ही रास्ता है अंतर्मन तथा बाह्य दृष्टि एक हो जाए। अंदर-बाहर दिव्यता ही दिव्यता, प्रभुता ही प्रभुता सुझाई दे-
मंगल छवि नैनों से देखूँ
मंगल ध्वनि को सुनूँ सदा
मंगल वाणी मुख से बोलूँ
संतन वाणी नमन पदा (चरण)


सबमें मंगल ही देखूँ, सकारात्मक भाव बनाए रखूँ प्रभु की कृपा ही अनुभव करूँ । जो भी स्थिति या कर्म जीवन में प्राप्त हो उसे अपनी पूरी शारीरिक मानसिक क्षमताओं व पूर्ण आस्था से ऐसी यौगिक क्रिया बना देना कि जैसे प्रभु की पूजा-अर्चना व आरती हो। इससे वह दिव्य आत्मशक्ति प्राप्त होगी जो विश्व को उजागर करेगी, समस्त धरा को सौंदर्यमय बनाएगी। सब कहते ही रहते हैं कि सबके अंदर प्रभु हैं दिव्यता है पर इस बात में कितनी सच्चाई है, कितनी महानता है गहनता है इसका परीक्षण तो संसार में रहकर ही होगा।

तो भई न भटको और न अपने से भागो। अपने सत्य को ध्यान द्वारा जानकर अपने ऊपर काम करो। संसार तो एक अभ्यास-स्थली है अपने को निखार कर अंदर की दिव्यता का अमृत चखने की। अगर यह नशा सिर चढ़कर न बोला तो क्या पाया जीवन में। लाख जप, तप, पूजा या आशीर्वाद ले लो पर सच्चाई बिना निस्तार नहीं। नि:स्वार्थ प्रेम बिना विस्तार नहीं, कर्म बिना प्रसार नहीं।

प्रकृति ने पूर्ण मनोयोग से मानव को सर्वगुण सम्पन्न बनाया। एक अनमोल रतन, करुणामय मन का भाव और प्रदान किया। प्रकृति से बड़ा कोई दाता नहीं पर वह भी किसी के लिए रुकती नहीं उसके विनाश के ताडंव में करुणा नहीं। पर मानव करुणा में दया भाव में रुकता है किसी के लिए। लेकिन किस सुपात्र के लिए रुकना है इसका विवेक अंदर की दिव्यता ही जगा सकती है क्योंकि-
‘दया करना उस पर वाजिब जो शख्स दया के काबिल हो’

कहाँ-कहाँ, क्या-क्या करवाना है ऐसा कर्म जो प्रकृति के नियमों के अनुकूल हो इसका रिमोट कंट्रोल आंतरिक दिव्यता के हाथों में ही सुरक्षित रहता है। वह अपने आप मन, बुद्धि व शरीर को अपनी ही विभूतियों के अनुसार कर्मरत कराती है। इसी दिव्य सहज कर्म वाली स्थिति को ही तो पाना है। दो ही चीजें मानव के बस में हैं अपने पर काम कर अपना सत्य जान, अपने अंदर की दिव्यता से योग (मिलन) व दूसरों के लिए प्रार्थना जो भवभयतारिणी है, सर्व कल्याणकारिणी है, यही सत्य है।

  • प्रणाम मीना ऊँ

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