सच्चिदानंद का स्वरूप

सच्चिदानंद का स्वरूप

हे मानव ! तू जानना चाहता है कि कैसा है उस परम का स्वरूप। वह तो केवल प्रकाशवान सत् चित् का आनन्द है। जिसे केवल सत्य से ही जाना जा सकता है और वह भी केवल अपने ही सत्य से। हाँ, उसे पहचान सकते हो इन लक्षणों के द्वारा :-
– जो सदा सत्य होने की ही राह दिखाए
– जो सदा उन्नत होने की प्रेरणा दे
– जो पूर्ण सकारात्मक हो
– जो पूर्णता की ओर ही ले जाए
– जो बंधन या भार न दे
– जो सदा एक निश्चय में रहे
– जो सदा ब्रह्माण्डीय सोच (यूनिवर्सल थॉट) में रहे
– जो बालक जैसी सरलता निश्छलता पवित्रता निर्मलता युक्त हो
– जो अपने-पराए, तेरे-मेरे, पाप-पुण्य से ऊपर हो
– जो न गुण न ज्ञान से-न रूप न धन से-न पूजा न अर्चना से-न विधि न विधान से किसी से भी न रीझे न हिले बस सच से ही मोहित हो और उसी में पारे की तरह मिल जाने को आतुर हो।

सच्चिदानंद को उसी के जैसा होकर उसी में विलय होकर ही जाना जा सकता है। जिसके लिए गहन आंतरिक ध्यान की साधना चाहिए जो पूर्णता की ओर ले जाएगी। जब मानव टुकड़ों में, विभागों में जीयेगा तो कैसे पूर्ण होगा जबकि पूर्णता ही पूर्णता में विलय कराएगी। पूर्ण होने के सच्चे प्रयत्न को प्रारम्भ करने से ही कर्मबंधन कटने शुरू हो जाते हैं। इस साधना के पाँच मानव धर्म कर्म हैं।

पहला धर्म-कर्म- जगत के प्रत्येक जड़-चेतन भोग्य पदार्थों में आसक्ति रहित होना, लिप्तता न होना, भोग मना नहीं, कर्त्तव्य कर्म मना नहीं पर प्रयोगाधिकार जताने से बचना है।

दूसरा धर्म कर्म- किसी और की वस्तु व स्वत्व भोगने की चेष्टा करना, किसी भी चतुराई से किसी का धन, मान हथियाने का प्रयत्न करना, ईर्ष्या-द्वेष युक्त होना, आलोचना करना ये सब अंधकार बढ़ाने के माध्यम हैं तो जो भी पाना है उसे अपने ही पुरुषार्थ से पाना है।

तीसरा धर्म कर्म- निष्काम कर्म करना कर्ताभाव से मुक्त होकर। फंसने वाले लिप्तता वाले कर्म नहीं। जिसमें सबका, समाज, देश, विश्व व सृष्टि का कल्याण हो उसी कर्म में पूरे मन-वचन-कर्म की सत्यता से धनधान्य से योगदान देना।

चौथा धर्म कर्म- एकत्व अनुभव करना एक ही सत्ता को सर्वोपरि मानना। ईश्वरीय सत्ता ही सब जगह सब समय व्याप्त जानना, देखना और उसी के अनुसार आचरण करना यही पूर्ण आस्था है। सतत् ध्यान द्वारा ही यह साधना सम्भव होती है।

पाँचवाँ धर्म कर्म- आत्म रस चखना, अंदर-बाहर एक सा मस्त मौसम कोई बोझ नहीं, कोई सोच नहीं, ऊब नहीं, विषाद नहीं, मन वाणी के अनुकूल आचरण विरोधाभास नहीं – सरल ज्ञान, सरल आचरण।

जो ज्ञानी अपने ज्ञानानुसार जीता नहीं उसे कभी भी आत्मज्ञान प्राप्त हो ही नहीं सकता जिसे प्राप्त होगा सच्चिदानंद स्वरूप बनकर ही प्राप्त होगा। जिसके लिए प्रतिपल सत्य, प्रेम व कर्म के प्रति चैतन्य होकर कर्मरत होना ही होगा।

पलायन करने वाला कभी जीतता नहीं
और जीतने वाला कभी भी पलायन करता नहीं।
Quitter never wins & A Winner never quits

यही सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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