पिछले अध्याय में हवन की तैयारी बताई। उसके बाद हथेली के अमृतकुंड में जल भर कर दो उंगलियों से उसे छूकर शरीर की सब कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों को जल लगाकर प्रार्थना की जाती है कि वह सदा शुभ व मंगलमय देखें, सुनें व स्वस्थ, बलिष्ठ, पुष्ट हों। तत्पश्चात अग्निकुंड में कपूर से व घी में डुबोई लकड़ियों से अग्नि प्रज्वलित की जाती है। यह मानव शरीर भी इस लकड़ी के समान घी-पौष्टिकता का प्रतीक-ग्रहण कर पुष्ट होकर दूसरों के काम आए। दूसरों की ज्योति जलाने में अपना जीवन होम कर सकूँ, जला सकूँ यही प्रतीकात्मक भाव है।
इसके बाद थोड़ी-थोड़ी देर बाद मंत्रोच्चार के साथ घी व सामग्री डालते रहते हैं। जितनी बार स्वाहा बोलो उतनी बार अपने शरीर व मन के विकारों को भी बीन बीन कर अग्नि देव को भस्म करने के लिए अर्पण करना है। यह एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है अपनी कुंठाओं से मुक्ति पाने की। अग्निदेव विकारों को पूर्णतया नष्ट कर प्रकृति के तत्वों में विलीन कर देते हैं। यही सत्य है हवन का और सृष्टि की उत्पत्ति के क्रम का।
हवन सिर्फ मंत्र बोलकर जल्दी-जल्दी रटी-रटाई क्रियाएँ दोहराना मात्र नहीं है। यह एक वैज्ञानिक पद्धति है जो मन व आत्मा के विज्ञान से संबंधित है। जिसे हमारे विज्ञानी ऋषि मुनियों ने वेद काल में अपनी चिंतन क्षमता से जान लिया और महान वैदिक संस्कृति की नींव रखी। धीरे-धीरे समय बीतने पर मानव की स्वार्थी बुद्धि ने इनमें कुछ विकारों को मिला लिया जिससे हवन करने वालों के भाव स्वार्थी व तांत्रिक हो गये। अब समय की मांग है इसका सही वैज्ञानिक महत्व समझकर विश्व-कल्याण के लिए उपयोगी बनाया जाए।
जरूरी नहीं कि हमेशा ही बहुत बड़े हवन का आयोजन हो। छोटा सा दस-बीस मिनट का हवन जो कि बड़े मिट्टी के दीए या उथले पात्र में किया जा सकता है, केवल गायत्री मंत्र या सिर्फ ऊँ का ही उच्चारण करके। ऊँ शान्ति: शान्ति: शान्ति: के पाठ से ही सर्वत्र शान्ति संदेश पहुँचेगा ही।
हवन और यज्ञ में अंतर है। हवन किया जाता है आंतरिक प्रबुद्धि, स्वास्थ्य शुद्धि, आयु वृद्धि व वातावरण शुद्धि व पवित्रता के लिए। प्राकृतिक सम्पदाओं के प्रति आदर, प्रेम जगाने के लिए। प्रकृति के प्रति समर्पण के लिए, अपने भावों, विचारों को समझने के लिए और सबका कल्याण सोचने वाली मानसिकता के विकास के लिए। अपनी सोच के विस्तार के लिए उसे ब्रह्माण्डीय सोच बनाने के लिए। यह सब हवन की नित्यता से सम्भव होता है। जब इतनी पवित्र और ब्रह्माण्डीय सोच वाली बुद्धि का विकास हो विवेक जागृत हो जाता है तब मानव यज्ञ का अनुष्ठान करने योग्य होता है।
‘यज्ञोविश्वस्य भुवनस्य नाभि’
यज्ञ ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को बाँधने वाला नाभिस्थान है। यज्ञ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की, सृष्टि की, मन की व आत्मा की शक्तियों से संवाद स्थापित करने का साधन है, माध्यम है। यज्ञ द्वारा सभी शक्तियों का आह्वान विश्व के लिए कल्याणकारी कर्मों के लिए किया जाता है। सुख, समृद्धि, शान्ति व विकास के लिए आवश्यक दृश्य व अदृश्य स्थितियों, परिस्थितियों व वस्तुओं और जड़-चेतन में व्याप्त चेतनता से सहयोग की कामना ही यज्ञ की धारणा होती है। प्रत्येक कर्म का प्रभाव कर्ता तक ही सीमित न रहकर समस्त ब्रह्माण्ड पर पड़ता है।
यज्ञ होता है ऐहिक और पारलौकिक कल्याण के लिए और महायज्ञ जगत-मंगल का अनुष्ठान है। ऋषियों के ज्ञान को संजोकर उसका अनुसरण कर उसी के अनुसार यज्ञ करना ब्रह्मयज्ञ है। इससे उनकी आत्माएँ तृप्त होती हैं। देवताओं की योग्यताओं और उनकी क्षमताओं के संवर्धन लिए देवयज्ञ का आयोजन किया जाता है। सृष्टि के जीवों के कल्याण के लिए भूतयज्ञ का विधान है। एक मनुष्य की आत्मा ही सबमें व्याप्त है तो इस कारण अपनी भूख से पहले दूसरे की भूख मिटाना अन्न आदि से तृप्त करना ही नृयज्ञ है और विश्व के कल्याण के लिए व उद्धार के लिए यज्ञ ही वेद-विज्ञान का ज्ञान है। यह पंचयज्ञ-ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, नृयज्ञ व महायज्ञ उत्तम आर्य जाति के लिए नित्य कर्म यज्ञ है, जो भावों के स्तर पर भी उत्तम फल देने वाले हैं तथा सदा वंदनीय हैं।
‘अयज्ञियो हतवर्चा भवति’
यज्ञहीन का तेज नष्ट हो व्यर्थ हो जाता है। तो आओ आर्यावर्त के उत्तम आर्यों। उत्तम मानवो! महायज्ञों का संकल्प धारण कर उत्तम भावों द्वारा मन की व आत्मा की शक्ति जागृत कर भारतवर्ष को परम शक्ति बनाएँ। भारत माँ की सर्वोत्तम संस्कृति का गौरव व आनन्द प्राप्त करें। भारतभूमि को प्रणाम का प्रणाम।
- प्रणाम मीना ऊँ