जो तोकू कांटा बोए ताहि बोई तू फूल

जो तोकू कांटा बोए ताहि बोई तू फूल
तोको फूल के फूल हैं वाको हैं त्रिशूल।


तेरी राह में जो कांटे उगाए उसकी राह में तू फूल उगाता चल! तुझे तो फूल ही फूल मिलेंगे उसे त्रिशूल मिलेंगे। तीन शूल-बीमारियां व्यथाएँ व दुर्घटनाएँ उसको खुद ही सताएँगी। सब कहते हैं हम तो अच्छा ही करते हैं दूसरों का क्या करें? बाहरी परिस्थितियाँ खराब हैं, क्या करें? तो भई बुराई कौन कर रहा है, इसका निर्णय कौन कर सकता है इसका अधिकार सिर्फ प्रकृति को है। उस प्रकृति को जो भगवान की भी जन्मदात्री माँ है। माँ बच्चों को सजा भी कुछ सिखाने के लिए ही देती है।

भगवान तो हमारे ही अंदर है अगर वह हमारे अंदर बैठा-बैठा सबको दोष ही दे रहा है तो इसका अर्थ है हमने अपने अंदर के भगवान को नहीं पाया। जब उसको पा लेंगे तो वह तो बस प्रेम ही प्रेम का रूप है। यह प्रेम सबको समदृष्टिï से देखेगा सबको क्षमा करेगा जैसा ईसा मसीह ने फांसी चढ़ाने वालों के लिए कहा- ‘प्रभु इन्हें क्षमा करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। जो भी लोग हमारी जिंदगी में आते हैं वे हमारे कर्म धुलवाने और हमें कुछ सिखाने ही आते हैं। हमें यहाँ सबसे सीखना ही सीखना है चाहे उनकी गलतियों से, चाहे अच्छाइयों से। आलोचना कर शक्ति नष्टï नहीं करनी है। विवेचना कर ज्ञान लेकर उस पर परिश्रम कर, अनुभव कर, रत्न निकालकर, जीवनमाला में पिरोना है। यही है अपने अंदर बैठे प्रभु को प्रसन्न करना।

यदि कैकेयी न होती तो राम कहाँ अपनी मातृभक्ति और पिता-आज्ञा पालन का उदाहरण बन पाते। सबसे सीखकर उनको दुआ देनी चाहिए कि अगर हमें दु:ख देने वाले न होते हम कैसे क्षमाशीलता और विनम्रता का पाठ पढ़ते। कहने को तो सब कह लेते हैं कि हम इन गुणों को धारण करते हैं पर इनकी असली परीक्षा तो तभी होती है जब हमारे सामने बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ व समस्याएँ आती हैं और हम विचलित नहीं होते और धैर्य रखते हैं। पहले इसके लिए हमें बहुत प्रयत्न करना पड़ता है फिर धीरे-धीरे यह हमारा स्वाभाविक गुण बन जाता है यदि आपके जीवन में परीक्षाएँ आ रही हैं तो समझिए अभी सबक पूरा याद नहीं हुआ है, कहीं कुछ कमी अवश्य है।

बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपनो मुझसे बुरा न कोय


प्रकृति बड़ी कृपालु है आपको पूर्णता की ओर ले जाना चाहती है मगर हम दिमाग के कहने में आकर अपनी शक्ति दूसरों के दोष बखानने और अपनी असफलताओं का दोष दूसरों पर और परिस्थितियों पर थोपने में ही लगा देते हैं। प्रत्येक महापुरुष, संत, स्वामी जो हमें रास्ता बताने की शक्ति रखते हैं उन्होंने भी पूर्ण तपस्या की होती है तभी प्रकृति उन्हें सीख देने का अधिकारी बना देती है। हम सब भी अधिकारी हो सकते हैं यदि हमने अपनी जिंदगी में आए कष्टों को हर्षपूर्वक स्वीकार कर तप किया हो। जब हम अपने दोषों को चुन-चुनकर निकालने का प्रयत्न करते हैं तो प्रकृति स्वयं शक्ति देती है। दोषों पर ध्यान देकर उन्हें नष्ट करने की शक्ति मांगना ही असली प्रार्थना है। जिसमें सांसारिक कर्म छोड़कर न तो अलग समय निकालने की जरूरत है न ही मंदिर, मस्जि़द, गिरजाघर में घंटों पूजा करने की, न गुफाओं में जाकर ध्यान-योग की तपस्या की। ये सब भी अपनी जगह ठीक हैं मगर फल तो तभी मिलेगा जब वहाँ भी शान्त-पवित्र मन से सबके भले की मंगलकामना से दर्शन किया जाए।

प्रकृति की पूर्ण व्यवस्था का सत्यम् शिवम् सुंदरम् रूप तो देखिए। यदि माता-पिता की आज्ञा से राम बनवास न जाते तो कैसे रावण से युद्ध के लिए तैयार होते। वन में चौदह साल आपदाएँ सहते, कंदमूल खाते तरह-तरह के कष्ट सहते, प्रकृति के बीच रहकर ध्यान-मनन करते, राजनैतिक व पूरे परिवार की समस्याओं से निश्चिंत रहकर उन्होंने इतनी शक्ति पाई कि रावण जैसे शक्तिशाली पर विजय पाई। राज सुख भोग में क्या वह शक्ति आती। चौदह साल नंगे पाँव कँटीले व पथरीले रास्तों पर चलने वाले खुद अपने लिए और अपने प्रिय सीता लक्ष्मण के लिए रहने व खाने की व्यवस्था जुटाने वाले रामजी की यह तैयारी थी पुण्य को पाप पर विजय दिलाने की।

माँ सीता ने यदि जंगल में कष्टों को न सहन किया होता तो कैसे रावण की वाटिका में अकेले प्रकृति के बीच दिन काटे होते और अगर राम से बिछुड़ने का गम उन्होंने न झेला होता तो कैसे लव-कुश को फिर से अकेले जंगल में पालतीं। उन्होंने अपना दुख नहीं माना न ही विचलित हुईं। गंगा-सी शीतल शिव के चांद-सी राम के अनुप्राण-सी पति आज्ञा को प्रभु आज्ञा मान उस क्षण को पूर्ण समर्पण कर दिया, लव-कुश को पूर्ण संस्कार दिए, न्याय के लिए तैयार किया। पर स्वाभिमान नहीं खोया कर्त्तव्यपरायणता की प्रतिमूर्ति व स्वाभिमान की शक्तिरूपिणी ने धरती में समाना स्वीकार किया राज्य सुखभोग को महत्व न दिया। यही है प्रकृति का नियम वह आपको किसी न किसी लक्ष्य के लिए तैयार कर रही होती है जो हमारा दिमाग नहीं जानता उसकी दी हुई परीक्षाओं को हम कष्ट और दु:ख का नाम देने में ही समय लगा देते हैं।

प्रतिक्षण समर्पण में रहना श्रीकृष्ण गीता में बता ही गए हैं। समर्पण में रहना ही तपस्या है। हर क्षण को पूर्णता से जीना, अपनी सारी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं के साथ ही मानव उद्यम है। सुख तो आलस्य की ओर बढ़ाते हैं पर कष्टï हमें प्रयत्नशील बनाने का मंत्र देते हैं। दुश्मन को दुआ दो जो हमारी मानसिकता को चुस्त रखते हैं मेडीटेशन, ध्यान व सोच का मसाला देते हैं। यदि शैतान न होता तो भगवान को कौन पूछता?

हम कहते हैं भगवान ने हमें कष्ट दिया और हम शिकायत बाहर वाले भगवान को करते हैं कि तूने ये क्यों किया? तो यदि भगवान हमारे अंदर ही हैं तो हम अपने से ही शिकायत कर रहे हैं कोस रहे हैं। इस आत्म-प्रताड़ना में मन लगाकर अपने को ही निर्बल कर रहे हैं। अपने को प्यार करो अपने आपको प्यार कर सको इस योग्य बनो तभी दूसरों को नि:स्वार्थ प्रेम दे पाओगे। अब जब हमें झूठ से लड़ना है तो जैसे हर लड़ाई की एक नियमपूर्ण तैयारी होती है वह तो करनी ही होगी। यह तैयारी सत्य रूप होकर करनी चाहिए। तैयारी में कष्टï व व्यवधान भी आएँगे उन्हीं को तो जीतकर शक्ति पानी है। अपने सत्य पर काम करो। दूसरों की चिंता प्रकृति पर छोड़ो।

सत्य कर्म ही मार्ग है मानवता को झूठ के पंजे से छुड़ाने का। प्रेम मार्ग है प्रगति पथ पर लाने का। आलोचना करने वालों से प्रोत्साहन देने वाले, प्रभु को ज्यादा प्रिय हैं। माँ भारती जकड़ी है झूठ की जंजीरों मेें। आओ, उसे छुड़ाने की तैयारी करें। यही प्रकृति की पुकार है प्रगति का संदेश है काल की मांग है सत्य-कर्म के महायज्ञ का आह्वïन है। इस अभियान में अपनी सामर्थ्यानुसार आहुति दें। सद्संकल्प अपने आप में शक्ति बीज है जैसा मन वैसी कामना, वैसा संकल्प, वैसा ही कर्म और वैसा ही फल होता है इस नियम में संशय नहीं, दुविधा नहीं प्रकाश ही प्रकाश है।

  • प्रणाम मीना ऊँ

प्रातिक्रिया दे