अंधकार स्वरूप रात्रि बीतने का और नव सुप्रभात के उदय होने पर सबको जगाने का, विशेष रूप से सखी जो साथ चलने को राजी हो, इसका कितना सौंदर्यपूर्ण चित्रण किया है, महान सरस्वती पुत्र जयशंकर प्रसाद ने
बीती विभावरी जाग री।
नभ पनघट में डुबो रही,
तारा घट उषा नागरी॥
एक ब्रह्मा ही तो पुरुष है। हम सब उसकी सखियाँ व गोपियाँ ही तो हैं। तभी तो कहा है सखी जाग री। नभ के अनंत सागर रूपी पनघट में, एक-एक करके तारे रूपी घड़े, उषा पनिहारिन डुबो रही है। भारत में यह प्रभात की दिनचर्या रही है पनघट से पानी भर लाना। पानी वह जल तत्व है जो मानव जीवन का सत्व है। कबीर जी ने कहा है-
बिन पानी ना उबरे मोती मानस चून।
उषा की तरह प्रभात से पहले की ब्रह्मा बेला में, ज्ञान के अपार सागर से घड़ा भरना है ताकि दिन भर सत्कर्म की सद्बुद्धि रहे। रात तो काल का एक विश्राम प्रहर है, जिसे जाना ही होता है। उससे शक्ति पाकर, दिन में सूर्य की भाँति, जीवंत हो, प्रकाश फैलाना ही तो कर्म है। झूठ कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो है तो अँधेरा ही, प्रकाश फैलने पर कटकर ही रहता है। तो हे सखि अब जाग जा
उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो तू सोवत है।
कबूतर की तरह आँखें बंद कर सोचने से कि बिल्ली है ही नहीं तो क्या खा पाएगी उसे। यही असत्य है। होनी ही तो सत्य है हमारी परीक्षा है, उसका चैतन्यता से सामना करना ही तो पुरुषार्थ है। मगर समुचित साधन, ज्ञान और विवेक के बिना पुरुषार्थ असंभव है। आत्म-सुधार ही सतत साधना है और आत्म-सत्ता की कुशल माली की भांति पल-पल काँट-छाँट करते हुए जीवन को सुसंस्कृत-सुसभ्य बनाना ही होता है। ऐसा परिष्कृत जीवन स्वत: ही कल्पवृक्ष हो जाता है। हे मानव! जाग अब तो बहुत रात बीत गई, इतना आलस्य, इतनी आरामतलबी कि अपने ही पलंग के पाए जलते हुए नजर नहीं आ रहे। चेत जा, ओ प्राणी! समय का संदेश पढ़ने और समझने में अपनी बुद्धि लगा और सोया हुआ विवेक जगा।
चार युग हैं और चारों युग की तीन प्रतीकात्मक-अधिष्ठात्री दैवीय शक्तियाँ होती हैं। पहले जब युग का प्रारम्भ होता है तो महासरस्वती प्रबल रहती है। क्योंकि युग का बचपन होता है, सीखा जाता है, ज्ञान-विज्ञान का ज्ञान पाया जाता है, समुचित विकास के लिए। तब लक्ष्मी की प्रबलता नहीं होती। पहले लेखक, विचारक, शिक्षक लक्ष्मी के ऐश्वर्य में भ्रमित नहीं होते। महासरस्वती की सेवा साधना रूप में होती है। जब युग का यौवन आता है तो उसी ज्ञान और ध्यान पर लक्ष्मी की कृपा हो जाती है। पर धीरे-धीरे महालक्ष्मी हावी होने लग जाती है, सरस्वती का व्यापार होने लगता है तब ढलते हुए युग यौवन का संतुलन बिगड़ने लगता है। लक्ष्मी को पकड़कर रखने में सारी बुद्धि लगने लगती है, और उसके फिसलने का भय निरंतर सताता है। कुरूपता और व्याधियाँ हावी होने लगती हैं।
तब संतुलन लाने को, सत्य-स्थापना को, प्रकृति महाकाली रूप धर अपूर्णता के विनाश के माध्यम तैयार कर तत्पर होती है। यही होता है संभवामि युगे-युगे। हर युग की यही नियति है। राम के समय पाप-पुण्य का युद्ध था। कृष्ण के समय धर्म-अधर्म का युद्ध था। अब कलियुग में झूठ-सच का। झूठ को नकारना ही होगा।
हर युग का सत्य एक ही है और वह है-स्वाभिमान की रक्षा और अपूर्णता के द्वारा विनाश को रोकने के लिए अस्त्र-शस्त्र, बुद्धि-विवेक तथा पुरुषार्थ सब लगाना ही होता है। तन-मन-धन से, पूर्ण मानसिक व शारीरिक क्षमताओं से सत्य व स्वाभिमान की, स्वाभिमान जो मानव जीवन का पानी है उसकी आन रखनी ही होगी। आन जो बान है आभा है मानव जीवन मोती की। क्या अब आँख का पानी तक मर गया जो माँ भारती का रुदन व सरस्वती का क्रंदन सुनाई नहीं दे रहा। अब समय युग परिवर्तन का है। सत्य स्थापना का है जो समय का संकेत समझ उसके अनुसार कार्य नहीं करेंगे उन्हें समय कभी भी माफ नहीं करेगा।
रात भर का है मेहमां अँधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा।
जैसे मानव जीवन की तीन अवस्थाएँ हैं- बचपन, यौवन और वृद्धावस्था। वैसे ही हर युग की भी यही तीनों अवस्थाएं आती हैं। जैसे वृद्धावस्था जीवन विवेचना की घड़ी होती है, झूठ की गठरियों का बोझ एक एक कर उतारने की बेला होती है। वैसे ही अब कलियुग की भी यही बेला है। जो यह रहस्य समझ लेंगे और कर्मरत होकर पुरुषार्थ करेंगे वही भावी पीढ़ी को सुनहरी विरासत दे पाएँगे।
तन दीया, तेल सत्य-कर्म का
जले दिन राति ज्ञान की बाती
पोला तन प्रकृति की धरोहर
घट भीतर बांसुरी मनोहर।
अंतर में गूँजती, बजती हुई बांसुरी सब युग-प्रवर्तकों, संतों व महात्माओं को कर रही है बस प्रणाम ही प्रणाम। यही है प्रणाम का प्रणाम। आओ, साथ चलें सत्य का कारवां बने। सत्य की मशाल एक गिरे तो दूसरा उठा ले।
यही है सत्य
- प्रणाम मीना ऊँ