स्वर्ग सम जीवन

हे मानव ! कहां ढूंढ़ता है तू स्वर्ग। बड़ी प्रबल है तेरी स्वर्ग की इच्छा चाहे मर के मिले बस पाना ही है। तेरे काल्पनिक स्वर्गसम जीवन से अपेक्षाओं की कमी नहीं। एक दिवास्वप्न जैसी भ्रमित करने वाली मृगमरीचिका। अरे प्रभु ने तुझे वह सब क्षमताएं प्रदान की हैं जिससे तू अपने व अपने सम्पर्क में आने वाले सभी जीवों के लिए स्वर्गसम वातावरण उत्पन्न कर सकता है। अपना स्वर्ग आप बना सकता है तो उठ अज्ञान की निद्रा से जाग पूरे पुरुषार्थ से कर्मरत हो जा। धरा को स्वर्ग बनाने की प्रक्रिया पहले अपने चारों ओर स्वर्ग बनाने से ही आरम्भ होगी। प्रणाम बताए स्वर्ग सम जीवन की साधना का विधान :-- सर्वोत्तम साधना : ध्यान योग व स्वाध्याय योग- शिक्षा व ज्ञान की सच्ची सेवा संस्कार दान व माँ शारदे की विभूतियों-सत्य कर्म व प्रकाश का प्रसार - सर्वोत्तम कर्म- प्रेममय प्राणों का विस्तार स्वर्गिक वातावरण की पहचान…

अवचेतन मन का ज्ञान

स्मृति अनंत सागर स्मरण की बना मथनी बुद्धि की बना काल का चक्र घुमा पाया अनमोल रत्न ज्ञान का मानव विधान का अवचेतन मन की परतें हटाकर ही उस प्रकाश या नूर के दर्शन होते हैं जो सब में व्याप्त है और एकत्व जगाने का तत्व है। मानव की प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया जिसका वो कारण नहीं जान पाता वो सब अवचेतन मन से ही संचालित होती है। ध्यान योग को प्राप्त मानव इस सारी प्रक्रिया के प्रति सजग होता है। क्योंकि ध्यान की साधना द्वारा वो अवचेतन मन की प्याज के छिलकों की भाँति एक-एक परत खोलकर अंदर के खालीपन तक पहुँच ही जाता है। यही उसकी अमूल्य निधि व सत्य की पूँजी है। अवचेतन मन का बुद्धि को भान नहीं होता। पर पूर्णरूपेण खाली हुए मन में जो सत्य की सूचना रहती है उसका ज्ञान सदा ध्यानयोगी को रहता है क्योंकि उसका संसारी मन व अवचेतन मन एक हो जाते…