साधना योग संस्कृति

सुबह- ध्यान : जो साधोगे वही सधेगा- शान्ति तो शान्ति, अशान्ति तो अशान्ति, सत्य तो सत्य, असत्य तो असत्य, प्रेम तो प्रेम, कटुता तो कटुता, भक्ति तो भक्ति, विद्रूपता तो विद्रूपता आदि-आदि। जहां जाए ध्यान वहीं बने भगवान। दोपहर- योग : जो करोगे वही योग बनेगा कर्म पूर्ण कर्म - राग द्वेष रहित फलेच्छा रहित कर्म ही योग बनेगा कर्म योग की साधना। कर्म बंधन काटने का मर्म। संध्या-संस्कृति : संध्या संस्कृति का समय मेल मिलाप- गीत संगीत जो करोगे वही संस्कृति बन जाएगा। अपनी अपनी संस्कृति अनुसार या विशेष गुणवत्ता अनुसार समय व्यतीत करना उत्तम है। संस्कृति संस्कार साधना। भावी पीढ़ी मेंं संस्कार बोने का धर्म। रात्रि : प्रार्थना स्तुति कृतज्ञता, शुक्राना : भक्ति योग, साधना, सुबह दोपहर संध्या रात्रि इन चारों प्रहरों में ध्यान योग संस्कृति व प्रार्थना का ध्यान रखने से मानव का आंतरिक समय चक्र, घड़ी, सुनियोजित होती है और यह सुव्यवस्था ऊध्र्वगति का कारण बनती…

साधना योग संस्कृति

सुबह- ध्यान : जो साधोगे वही सधेगा- शान्ति तो शान्ति, अशान्ति तो अशान्ति, सत्य तो सत्य, असत्य तो असत्य, प्रेम तो प्रेम, कटुता तो कटुता, भक्ति तो भक्ति, विद्रूपता तो विद्रूपता आदि-आदि। जहां जाए ध्यान वहीं बने भगवान।दोपहर- योग : जो करोगे वही योग बनेगा कर्म पूर्ण कर्म - राग द्वेष रहित फलेच्छा रहित कर्म ही योग बनेगा कर्म योग की साधना। कर्म बंधन काटने का मर्म।संध्या-संस्कृति : संध्या संस्कृति का समय मेल मिलाप- गीत संगीत जो करोगे वही संस्कृति बन जाएगा। अपनी अपनी संस्कृति अनुसार या विशेष गुणवत्ता अनुसार समय व्यतीत करना उत्तम है। संस्कृति संस्कार साधना। भावी पीढ़ी मेंं संस्कार बोने का धर्म।रात्रि : प्रार्थना स्तुतिकृतज्ञता, शुक्राना : भक्ति योग, साधना, सुबह दोपहर संध्या रात्रि इन चारों प्रहरों में ध्यान योग संस्कृति व प्रार्थना का ध्यान रखने से मानव का आंतरिक समय चक्र, घड़ी, सुनियोजित होती है और यह सुव्यवस्था ऊर्ध्वगति का कारण बनती है। ऊर्ध्वगति से प्रकृति…

सीखा या जाना ज्ञान

ज्ञान बघारने के लिए नहीं होता। ज्ञान डींग मारने बताने या पढ़ाने के लिए नहीं होता। ज्ञान जीकर उसमें अनुभव का मोती पिरोकर प्रकाश के प्रसार के लिए होता है प्रचार के लिए नहीं होता। जीकर बताया गया ज्ञान, ज्ञान को जीकर अपने सत्य की कसौटी पर कसकर दूसरों को राह बताने के उद्देश्य से समझाने पर अवश्य ही वह वचन की तरह प्रभावकारी होता है। ज्ञानवान ज्ञानी के अलंकृत शब्द केवल प्रवचन बनकर रह जाते हैं। अनुभूत ज्ञान से उच्चरित शब्द गीता की तरह सत्य वचन -प्रभु के वचन होते हैं। सत्य ज्ञान ना बहस का ना व्याख्या का ना वाद-विवाद का किसी का भी विषय है ही नहीं।सत्य सदा प्रकट होता है, पूर्ण समर्पण में शरणागत जिज्ञासु के सत्य प्रश्नों के उत्तरों के रूप में। पूरे ध्यान में जाकर, अपने को पूरा खाली कर, उत्तरों की सत्य उर्मियों को आत्मसात कर कर्म करने पर ही सत्यानुभूति होती है।…

ऊर्जा का खेल

आरोप लगा कर ऊर्जा प्राप्त करना सामान्य सी बात है। मानव का स्वभाव बन गया है पर मानव यह बात समझ नहीं पाता कि ऊर्जा के साथ-साथ वह आरोपी के गुणदोष भी खींच रहा है जो आध्यात्मिक प्रगति की गति बहुत धीमी कर देते हैं क्योंकि तब व्यक्ति अपने स्व में नहीं रहता उसमें कोई और भी जुड़ जाता है। इससे बचने के लिए कुछ निश्चय करने होंगे। अपनी निजी समस्याओं की घोषणा सबके सामने न करना वाद-विवाद से बाहर रहना साफ स्पष्ट निर्देश देना ताकि कार्य और कर्त्तव्य कर्म समय से पहले ही पूरा हो जाए और कोलाहल न मचे। समय आने पर हड़बड़ाहट ना हो। इससे कर्म पूरा न करने वाला दोषी अपना दोष स्वत: ही समझ पाएगा।अपनी कमियों के लिए अपनी मानसिक तत्परता की चूक के लिए दूसरों पर दोष लगाना व्यर्थ है। ऊर्जा हनन है नकारात्मकता बटोरना है। अपनी वास्तविकता जानने के लिए अपने आप से…

मूलरूप

तू खुशबू है तुझे कैसे गिरफ्तार करूँ मैं जो जल गया मैं जो मिट गया गल गया बह गया उड़ गया मिल गया अग्नि अग्नि में पानी पानी में ïआकाश आकाश में हवा हवा में पृथ्वी पृथ्वी में समा गया और बन गया तेरा ही मूलरूप जिसमें मिला दो लगे उस जैसा यही है उसका रंग मैं तो यही जानूँ बस अब तो वो ही वो है, वो ही वो है वो ही वो तो है, मैं कहीं नहीं मैं तो कहीं नहीं, कहीं नहीं, कही भी नहीं यही सत्य है यहीं सत्य है। प्रणाम मीना ऊँ