क्या ऊँचा क्या नीचा

मुझे क्या ऊँचा क्या नीचा जिसने परम पद पा लिया हो उसे ये संसार क्या पद या पदवी दे पाएगा पूरी धरती जिसका सिंहासन पूरा आकाश जिसका छत्र अगणित चन्द्र-सितारों नक्षत्रों-सूर्यों के अनमोल हीरे मानिक-मोती सोने-चाँदी जड़ा शीतल मन्द पवन डुला रही चँवर संगीत की मधुर ध्वनि करते कोयल औज् भ्रमर प्रकृति रंग-बिरंगे फूलों की सुगंधियाँ जलाए आत्मा सब हृदयों पर राज कराए अनन्त कोटि ब्रह्मïाण्ड तक फैला साम्राज्य पर एकदम खाली न कोई चिन्ता न ही युक्ति मोक्षमयी बस मुक्ति ही मुक्ति मन के द्रुतगामी अश्व पर सवार कण-कण तक पहुँच जाते सब भाव-विचार कौन भरमाएगा इस मीन को कसके पकड़ो तो फिसले ढीली हो पकड़ तो फिसले कौन समझेगा मेरी बानी वही जो होगा पूर्ण ज्ञानी-ध्यानी पर न हो अभिमानी जो हो अपने को वही जाने न कम न ज्यादा मेरा स्वरूप समझने को होना होगा खाली समझनी होगी सारी सृष्टि की दृष्टि कैसे करती रहती प्रकृति प्रगति…

आत्मा सब जाने

जानती है सबकी आत्मा यह तो जुड़ी है अपने ही स्व से उस स्व के स्वरूप कृष्ण से प्रकृति के ऐसे मायके से जहाँ से भरपूर मिलता है और यह संसार नोच-नोच खाने वाला ससुराल और ला और लाकर दे लूटना खसोटना ही धर्म है यहाँ अच्छा ही है तपस्या के लिए जाना नहीं पड़ता गुफाओं जंगलों में सब कुछ वहीं है जहाँ होती हूँ जहाँ हूँ वहाँ भी कहाँ हूँ पूरी की पूरी आत्मलीन हूँ प्रभु की मीन हूँ, कृष्ण की बीन हूँ कृष्ण प्रेम से नित्य नवीन हूँ यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

आत्मानुभूति व धार्मिकता

अब समय आ गया है कि आत्मानुभूति (स्पिरिचुएलटी) व धार्मिकता का अंतर स्पष्ट किया जाए। धार्मिकता मनुष्यों की बुद्धि से पनपा अध्यात्मवाद है, पंथ है, जिसे तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है, जबकि आत्मानुभूति सच्चे मानव को प्रकृति द्वारा अनुभव कराई प्रकृति के ही नियमों वाले शुद्ध धर्म की सच्चाई है। कलियुग में धार्मिक गुरुओं व तकनीकों की भरमार ने सब गड़बड़ घोटाला कर दिया है। पर यह स्थिति भी प्रकृति की ही देन है ताकि सबके तीनों गुण रज-तम-सत खूब खेल लें तभी तो मानव गुणातीत होकर अपना सत्य जानकर सतयुग की ओर अग्रसर होगा। आत्मानुभूति (स्पिरिचुएलटी) है शरीर, मन-मस्तिष्क व आत्मा के विज्ञान का ज्ञान। मानव का पूरी सृष्टि व प्रकृति से क्या सम्बन्ध है उसमें उसका पात्र क्या है और कैसे सुपात्र बनना है। यही तो वेद है जो सनातन है। सच्चे आत्मानुभूत-स्पिरिचुएल मानव की कोई छवि नहीं होती वह क्षण में जीता है न भूत में न भविष्य…

सृष्टि का ज्ञान, ध्यान का विज्ञान

सृष्टि के तत्वों का ज्ञान सृष्टि का ध्यान एकत्व जगाए हे मानव ! तेरे भीतर भी वही पाँचों तत्व अरे समझ इनका सत्व तेरे अन्तर का आकाश तत्व चाहे सदा विचरण उन्मुक्त इधर-उधर डोलता-घूमता निष्प्रयोजन सा दीखता अनन्त प्रयोजन की सत्ता से संचालित यही तो ब्रह्माण्ड की कला है प्रकृति ने दिया तुझे ये मानव स्वरूप इसी कला को प्रयोजन देने को साथ में दिया ध्यान का वरदान बनाया एक नक्षत्र शक्तिपुंज पूर्ण पर डोलता-फिरता व्यर्थ ही भटकता रहता समर्थ होकर भी तभी तो नष्ट होता रहता अपनी ही ऊर्जा से ओ मानव जानकर यह परम भेद बन जा सूर्य-सा अडिग अपने ही संकल्प में दृढ़ जो सदा बँधा प्रकृति के नियम से चले एक ही चाल सदियों से करे सृजन देकर ऊर्जा चहुँओर तपे अपनी ही ऊर्जा से नित नवीन भोर सतत् निरन्तर निर्बाध गतिमान, कभी भी न हो पथभ्रष्ट न ही हो विनष्ट अपने ही ध्यान में मग्न…

परम स्वीकृति

पायो कृष्ण स्वरूप वरदान तव अंकुरित भयो प्रणाम मेरे लेखों में है सुगन्ध अनूठी सादगी शिशु जैसी सब युगों से बड़ी आयु वाला शिशु युग-युगान्तर वाला निरन्तरता और अनन्तता का शिशु जिसकी निश्छलता विवेकियों के विवेक से भी अच्छी है भली है सादा सरल सपाट खरा वक्तव्य जो होता प्रस्फुटित सत्य प्रेम व प्रकाश से कवितामय है मेरा निवेदन रहस्यवाद की पर्तें खोलता दर्शनशास्त्र का पुट देता वेद और विज्ञान से आश्वस्त करता कुछ उगता-सा कुछ बहता-सा परम की परमेच्छा से उसी की स्वीकृति से उसी की स्वीकृति से उसी की स्वीकृति से जो है वो, वो ही हूँ प्रभु रस चाख्यो नैन भाखा भाख्यो नैनों की भाषा ही बोलनी जानूँ यही सत्य है यहीं सत्य है !! प्रणाम मीना ऊँ

गुरु की विडम्बना

मैं मीना मूर्ख महान कंघे बेचूँ गंजों को आइने बेचूँ अंधों को ज्ञान बेचूँ अक्लमंदों को जिनकी अक्ल हो गई है मंद प्यार बाटूँ कृतघ्नों, thankless, को मान करूँ चाण्डालों का कर्म का पाठ पढ़ाऊँ कर्महीनों को दया करूँ राक्षसों पर बुलाऊँ धोखेबाजों को घर मोरी अक्ल गई घास चरने मूर्खों का पानी भरने भैंस के आगे बीन बजाऊँ गधों के आगे मुस्काऊँ कभी-कभी सोचूं गुरुओं की बाबत क्या होती है उनकी हालत शिष्य नचाएँ मंच बाँध कर गुरुजी नाचे उनकी ताल पर गुरु बन रहे मूर्ख शिष्य पूरे के पूरे धूर्त जहाँ कहा ज़रा-सा गुरुजी आप महान आशीर्वाद बाँटे गुरु भर-भर झोली ढेर-सा प्रसाद औ' मधुर-मधुर बोली शिष्य होते धन्य पाते प्रसाद आ जाएँगे फिर जब होगा विषाद आशीर्वाद ले चम्पत हो जाते अपने-अपने खेलों में रम जाते गुरु बिचारे करते रहते तैयारी पूजा की पाठ की ऊर्जा शक्ति प्राप्ति की प्रकाश प्रसार की ताकि आवें घूम-फिर कर जब…

समर्पण का विज्ञान

बनना होता है करुणासागर करने को प्रेम विस्तार प्राणी चतुर महान अपने से अनजान इष्ट से रुष्ट दुष्ट से खुश समर्पण की परीक्षा तक पहुँचे कोई-कोई ही महान परीक्षा जो दे पाएगा वही पाएगा आत्मज्ञान कृष्ण स्वरूप वरदान तो न रहो अनजान जानो समर्पण का विज्ञान जानो समर्पण का ज्ञान-विज्ञान… विधि का विधान मनु का प्रणाम यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

कर्मगति न्यारी

आज का ध्यान : हे मानव ! संशयों या प्रश्न पूछने में ऊर्जा व्यय करने की अपेक्षा सामने आए कर्म को कैसे पूरे मनोयोग शान्ति व धैर्य से पूर्णतया निभाना है इसका उद्यम करना होता है। क्योंकि प्रकृति का नियम है कि कर्म ही कर्म को काटता है। कर्म बंधनों से मुक्ति का उस परम चेतना ने बहुत ही अच्छा विधान किया हुआ है। कर्मों से कैसे किन-किन कर्मों से मुक्ति होगी वही मानव के सामने आते हैं। जैसा कि श्रीकृष्ण ने कहा स्वत: प्राप्त युद्घ को अपना कर्म जान हे अर्जुनï! विषाद व संशय की अपेक्षा युद्ध को तत्पर हो। घटनाओं से बचना नहीं है उनसे कैसे अपनी पूरी क्षमताओं से गुजरना है इसी का पूरा प्रयत्न होना चाहिए। क्योंकि पूरी कर्मठता से किए गए कर्म से ही विवेक जागृत होता है और फलेच्छा रहित किए गए कर्म से आत्मबल जागृत होता है जो मानव के उत्थान का मार्ग…

मानवता को संदेश : अपने मूल स्वरूप में परिवर्तित होओ

मानव ने अपने अस्तित्व का एक चक्र, सरल पवित्र शुद्ध आत्मवान और वास्तविक होने से लेकर चालाक पाखंडी धूर्त हेराफेरी और बुद्धि की जोड़ तोड़ से काम निकालने वाला होने तक का, पूर्ण कर लिया है। यह अनुभूत किए बिना कि इसमें उसने मानव जीव की प्राकृतिक उत्थान प्रक्रिया को कितना मलिन कर दिया है। वो मानव जिसे प्रकाश का ज्योतिर्मय पुंज, दिव्यता परिलक्षित करने वाला होना था वो मात्र बुद्धि की चतुराइयों और समायोजनाओं का उत्पाद बनकर अज्ञान के अंधकारमय कूप में गिरा हुआ यह सत्य भी समझ नहीं पा रहा है कि किस सीमा तक उसका पतन हो गया है। इस कारण अब प्रकृति ने अपने हाथों में नियंत्रण की रास थाम ली है। इसलिए या तो अपनी बनाई हुई अनभिज्ञता की खाइयों में विनष्ट हो जाओ या स्वयं पर कर्म कर शक्ति पाकर इनसे बाहर कूद आओ। मानव इतना उलझ गया है नीरस सपाट सीधी क्षितिजीय रेखा…

आज का ध्यान

जो समाज अपने इतिहास से सबक नहीं लेता उसका भूगोल बदल जाता है, संस्कृति नष्ट हो जाती है। भविष्य अंधकारमय हो जाता है। धन्य है भारतभूमि कोई न कोई अवतारी बन पुन: शाश्वत सनातन सत्य का मार्ग प्रशस्त अवश्य ही करता रहता है। यही है इस पुण्य भूमि का प्रताप। यही सत्य है… समय अब करवट ले रहा है… अब पीछे देखने का समय नहीं है। सच्चे राष्ट्रप्रेमियों का प्रयास अनुभूत किया जा रहा है। प्रणाम इस नवीन युग, सत्य के उजागर होने के समय आ पहुंचने, का साक्षी हो रहा है। प्रणाम के मन का भारत, श्रीकृष्ण के मन का अर्जुन कर्मठ कर्मयोगी, तत्पर सत्ययोगी व सत्य स्थापित करने को संकल्पित दृढ़ निश्चयी मानव निर्भय हो अपना मानव धर्म निबाहने को कर्मरत हुआ है। पुन: प्रतिष्ठित होता भारत जगद्गरु बनने की ओर अग्रसर भारत ….जागो उठो और बढ़े चलो अभी तो बहुत संघर्ष व कर्म करना है।जय भारत !!…