मैं उत्तम होऊँ ‘अहमुत्तरेषु’

हे मानव ! यही है तत्वज्ञान पाने और उत्तम जीवन जीने का महामंत्र। तुझे मानव जीवन क्यों प्राप्त हुआ इसी में छुपा है सारी सृष्टि का भेद। प्रकृति ने मानव को वह सभी गुण प्रदान किए हैं जिनसे दिव्यस्वरूप परमात्मा को जाना जा सके और उनका दर्शन तत्वज्ञान से पाकर धरा को आलोकित किया जा सके पर तू तो अपनी युक्ति-युक्त बुद्धि के फेर में पड़ जाता है। सच्ची प्रार्थना का स्वरूप ही बदल देता है। प्रभु से कैसे संवाद करना है यही भूल जाता है। पर धन्य हैं हमारे मनीषी ऋषि जिन्होंने इतने सारगर्भित ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं से सम्पर्क साधने वाले मंत्रों को उद्घोषित किया। इन्हीं में से एक है 'अहमुत्तरेषु'- मैं उत्तम होऊँ, कितनी ऊँची प्यारी व सरल सी प्रार्थना है जबकि आज का मानव कैसे नीचे से नीचे निकृष्ट होऊँ इन्हीं उपायों की ओर खिंचता ही चला जा रहा है। इस मंत्र की साधना की सद्बुद्धि केवल माँ…

अवचेतन मन का ज्ञान

हे मानव !अवचेतन मन की परतें हटाकर ही उस प्रकाश या नूर के दर्शन होते हैं जो सबमें व्याप्त है और एकत्व जगाने का तत्व है। मानव की प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया जिसका वह कारण नहीं जान पाता वह सब अवचेतन मन से ही संचालित होती हैं। ध्यान-योग को प्राप्त मानव इस सारी प्रक्रिया के प्रति सजग होता है। क्योंकि ध्यान की साधना द्वारा वह अवचेतन मन की प्याज के छिलकों की भांति एक-एक परत खोलकर अंदर के खालीपन तक पहुँच ही जाता है यही उसकी अमूल्य निधि व सत्य की पूँजी है। अवचेतन मन का बुद्धि को भान नहीं होता। पर पूर्णरूपेण खाली हुए मन में जो सत्य की सूचना रहती है उसका ज्ञान सदा ध्यान-योगी को रहता है क्योंकि उसका संसारी मन व अवचेतन मन एक हो जाते हैं यहीं सच्चा विवेक जागृत होता है। जो भी प्रभु संदेश व निर्देश ऐसे ध्यानयुक्त युगदृष्टा के मन में बीज रूप में…

चिंतन-मनन से उत्कृष्टता प्राप्त कर

हे मानव ! उठ और बन एक उत्कृष्ट मानव, जो हो अनन्यावस्था में स्थित। सच्चे मानव मन की प्राकृतिक अवस्था ही सच्चा चमत्कार है। जो इतना सरल अद्भुत व पारदर्शी होता है कि लोग उसे समझ ही नहीं पाते। उनकी दृष्टि उसके आर-पार हो जाती है और वह उसके सत्य से वंचित रह जाते हैं। मानव की सत्यमयी सहज स्थिति में ही प्रभु के संदेश अवतरित होते हैं। यह स्थिति प्राप्त होगी सिर्फ शुद्ध पवित्र, स्पष्ट व चैतन्य चेतना के द्वारा ही। तंद्रा से जागो-अपने अंतर्मन में झाँको। एक सत्यमय दृष्टा की भांति अब सम्बन्धों, घटनाओं स्थितियों व परिस्थितियों से छल-बल की चतुराई से निबटने का समय गया। इन सबको अब सत्यता से परखना होगा प्रत्येक प्रक्रिया व कर्म को प्राकृतिक नियमों पर तोलना होगा अन्यथा जिन परिस्थितियों को तुमने जोड़-तोड़कर संभाल लिया वे कभी भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेंगी। इनका सामना कर इनमें छुपे संदेश को अपने उत्थान हेतु…

आत्मनिर्भर हो अहं-निर्भर नहीं

हे मानव ! आत्मवान बन। अहम् जरूरतमंद है आत्मा नहीं। अहम् है अपने को वही जानना, मानना तथा विश्वास भी करना जो तुम वास्तव में हो ही नहीं। अहम् का उपयोग उत्थान के लिए आधारभूत शक्ति के रूप में करना है न कि कर्त्तापन के दंभ व अहंकार में। जब प्रमाद, आलस्य, दु:ख, संताप, क्रोध, विषाद, हिंसा आदि स्थितियाँ हम पर हावी रहती हैं तो हम अपनी सहज स्थिति में नहीं रहते। कोई और 'स्वयं' हमारे आत्मवान सत्य और दिव्यता के बीच आ जाता है यही कोई और ही अहम् है। अहम् एक दुर्बलता है उत्थान को सीमित करने और रुकावटें पैदा करने की। अहम् सदा दूसरों की स्वीकृति चाहता है और इस प्रकार की आत्मतुष्टि में बहुत ऊर्जा व्यय होती है। जो मानव आत्मगुणों में रम आत्मा की विभूतियों के अनुसार जीता है और प्रकृति जैसे बदले में कुछ पाने के भाव से रहित होता है वही आनन्द विस्तार…

कर्मठता ही दे सुबुद्धि और ज्ञान

हे मानव ! एक बात ध्यान रख कि आलसी वह ही नहीं है जो काम करना ही नहीं चाहता। आलसी वह भी है जो बेहतर कर सकता है फिर भी न करता है, न करना चाहता है। अपने दिल से पूछ जब तू प्रार्थना करता है तो उसमें भी प्रभु से कुछ अपेक्षा का भाव ही छुपा होता है। कोई और तेरे लिए कुछ कर देगा इस मानसिकता से तू सदियों से ग्रस्त है इसी भाव ने तुझे असहिष्णु व अकर्मण्य बना दिया है। अब सुन वरदानों का हाल-एक अधेड़ दंपत्ति युवावस्था में अपने लिए सुखमय जीवन की व्यवस्था नहीं कर सके। एक इकलौते पुत्र पर ही आस लगाए बैठे रहे कि वह तो उनके बुढ़ापे का सहारा है ही। पर ऐसा कुछ न हुआ पुत्र भी छोटी-मोटी नौकरी कर मुश्किल से गुजारा चलाने लगा। बुढ़ापा आ पहुँचा,न मकान न दुकान। परेशानहाल इधर-उधर भाग-दौड़कर हल ढूँढ़ने लगे। तब किसी ने…

जीवन की उठान तितली की उड़ान

हे मानव ! यह सत्य अब समझा ही जा सकता है कि प्रकृति वह नहीं देती जो तू चाहता है और मांगता है पर वह अवश्य ही देती है जो तुझे चाहिए और तेरे उत्थान के लिए आवश्यक है। ले ध्यान से सुन वृत्तांत तितली का और गुन गहन ज्ञान की बात। एक बंदे को तितली का एक खोल दिखा जो पूर्ण परिपक्व था। थोड़ी देर में उसमें एक छोटा-सा छिद्र हुआ तितली बाहर निकलने की घड़ी आ पहुँची थी। प्रकृति का अद्भुत करिश्मा अनुभव करने व तितली का बाहर आकर उड़ान भरना देखने के लिए वह वहाँ उत्सुकतापूर्वक बैठ गया। घंटों तक बार-बार तितली उस छोटे-से छिद्र से बाहर निकलने का प्रयत्न करती रहती फिर अंदर सिकुड़ जाती। उसका लंबा कठिन संघर्ष उससे देखा न गया, दया उपजी और खोल को काट दिया। तब तितली आराम से फुदककर बाहर तो आ गई पर उसका बदन पानी भरा सूजा हुआ,…

वेद के सत्य व विज्ञान के तथ्य का योग

हे मानव ! ध्यान की साधना द्वारा अपने को उस स्थिति तक लाना है जहाँ सम्पूर्ण सृष्टि की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने वाली परम चेतना से जुड़कर सारी शंकाओं और दुविधाओं से उबरकर अपना सही अस्तित्व जानना व समझना ही होगा वरना यह प्रश्न कि हम क्यों दु:ख तथा कष्ट पाते हैं, सदा ही हमारे मन को व्यथित करके, हमारे उत्थान को कुंठित करता रहेगा। मानव के कष्टों का निवारण कभी भी एक ही निवारक पद्धति पर पूरी तरह निर्भर होकर नहीं हो सकता। अब वेद व विज्ञान का योग अवश्यम्भावी है। वेद मानव की संरचना का अटल सत्य है। विज्ञान तथ्यों को स्वीकार्य बनाने का निरंतर प्रयास है। वेद रचना के समय मानव जैसा भी था अपने सत्य रूप में था। प्रकृति से जुड़ा होने के कारण प्राकृतिक व आनन्दमय निरोग जीवन जीता था। उसकी अंतरात्मा की आवाज़ प्रतिध्वनित आकाशवाणी थी। उसका शरीर यंत्र सुचारु रूप से…

कलियुग का सत्य

हे मानव ! अब यह सत्य भली प्रकार जान-समझ ले कि कलियुग में सच्चिदानंद का सत्य स्वरूप और वेद व विज्ञान का पूर्ण रहस्य जानने के लिए सुपात्र होना ही होगा। कालचक्रानुसार कलिकाल प्रकृति व ब्रह्माण्ड के सारे सत्यों व रहस्यों का महत्व जानने का, झूठ की दुकानें बंद कराने का सारे व्यवधान व अंतराल मिटाने का मानव जीवन का सही उद्देश्य जानने का युग है। यह युग है सारी विषमताओं व दुविधाओं का वैज्ञानिक कारण जानने का, अपूर्णता तथा असत्य के संहार का, अर्जुन को भी कृष्ण बनाने का ताकि सब हों कृष्णमय, ज्ञानमय, प्रकाशमय तथा कर्ममय ताकि अब न उजड़ें, बसे बसाए राज्य, ले अहंकार और अकर्मण्यता की आड़। हे मानव ! कलियुग तो है ही सतयुग के सुप्रभात की तैयारी का मंच, इसलिए इसकी एक ही मांग है सत्यमय हो जा। कलियुग में वेद व विज्ञान का इतना प्रचार व विस्तार हो चुका होता है कि दोनों…

मर्यादा राम की नीति कृष्ण की करे उद्धार

हे मानव ! कलियुग में इन्हीं की महिमा बखान से बेड़ा पार होगा। रावणों का कितना भी बखान कर लो ऊर्जा का हनन ही होता है। रावण व कंस अत्यंत गुणवान, ऐश्वर्यवान, अथाह सैन्यबल प्रधान थे फिर भी उनको महिमामंडित करने की अपेक्षा रामायण में श्रीराम और भागवत में श्रीकृष्ण की छोटी से छोटी बालक्रीड़ा से लेकर उनके महान व्यक्तित्व की सौम्यता, करुणा, कर्त्तव्य परायणता व सत्याचरण के एक-एक क्षण का पूरे विस्तार से वर्णन है। इसी प्रकार सत्यव्रतधारियों के बखान से उनके बताए मार्ग प्रसार से ही कल्याण होता है। आज का मानव सब तथ्य जानता है फिर भी जागने को तैयार नहीं, कर्म को तत्पर नहीं क्योंकि कलियुग के मशीनी दिमाग यही सोचते रह जाते हैं कि क्या लाभ होगा चेतना जगाकर? पहले युगों में कलम की शक्ति से सैलाब उमड़ पड़ते थे। जान तक न्यौछावर करने को उद्यत हो उठते थे लोग। वैसे भी यह प्रकृति का…

आत्म प्रवाहक का धर्म कर्म

हे मानव ! जीवन अत्यंत सौंदर्यवान है। थोड़ा हँस कर, थोड़ा रो कर कट ही जाता है। पर जब कोई बड़ी परीक्षा की घड़ी सामने आ खड़ी होती है तभी हमारी सच्चाई व अच्छाई दोनों की सच्ची परीक्षा होती है। बिल्कुल वैसे ही जैसे पढ़ाई की परीक्षा जिन्होंने खूब तैयारी की होती है उनमें एक उमंग-सी होती है। भय भी होता है परंतु व्यथित करने वाला नहीं। जिसकी तैयारी नहीं होती वही भयभीत, व्यथित और विचलित होते हैं। इसलिए संसार धर्म निबाहने के साथ जीवन की परीक्षाओं की तैयारी ही सच्चा आध्यात्म है। जितनी जीवन की परीक्षाएँ पास करोगे उतना ही उत्थान होता जाएगा। प्रत्येक परीक्षा महायज्ञ है इसको सफल बनाने में योगदान देने वाले प्रत्येक मानव का अपना महत्व है व धन्यवाद का पात्र है। जैसे पढ़ाई की परीक्षा में शिक्षा देने वाले से लेकर पालन-पोषण करने वाले समय से वहाँ तक पहुँचाने वाले द्रव्य व्यय करने वाले आदि…