वचन और प्रवचन

हे मानव!मानव यंत्र का सत्य जान। मानव चाहे जैसे भी गुणों में रमता हो प्रभु ने उसे एक ऐसी शक्ति दी है जिससे आठों प्रहर में एक बार अवश्य ही उसकी जिह्वा पर माँ सरस्वती उतरती है और जो भी उस समय कहा जाए वह सत्य होता है। इस पल का ज्ञान मानव बुद्धि को नहीं होता पर इसका अनुभव जीवन में सबको होता है कि कभी यूँ ही कही बात सच हो गई। इसे पूर्व सूचना या इंट्यूशन कह देते हैं। पर इस प्रक्रिया का विज्ञान क्या है और कैसे उसे इतना विकसित किया जा सकता है जहाँ वह वचन की तरह सुनिश्चित हो जाए। यह साधना व उद्यम कोई विरला युगदृष्टा ही कर सकता है। पर यह होता अवश्य है-यही प्रकृति का नियम है। जब मानव अपनी सोच, वाणी व कर्म में तारतम्य बना लेता है तो स्वत: ही इस रहस्य की परतें खुलने लग जाती हैं। बोले…

कोषाणु का तत्व ज्ञान

हे मानव!एक कोषाणु या सेल दूसरे कोषाणु या सेल से पूर्णतया विकसित होकर ही विभक्त होता है। फिर भी दोनों पूर्ण ही रहते हैं आकार-प्रकार में कोई भिन्नता नहीं होती। विभक्त होने का सूक्ष्मतम क्षण कोई साइंस या विज्ञान नहीं पकड़ सकता। वह तो ब्रह्माण्डीय चेतना (कॉस्मिक कॉन्श्यसनेस) का ही निर्णय होता है। एक सेल एक समय में एक ही को पूर्ण करने में पूरी शक्ति व ध्यान लगाता है। अगर मदर सेल चाहे कि मैं ही अपना आकार बड़ा कर सारे शरीर को चला लूँ अपनी सत्ता का विस्तार करता रहूँ तो, क्या होगा? कितनी सुंदर व्यवस्था है सेल पूर्णता पाकर जीता है और मानव पूर्णता पाकर मरता है पूरा होता है यही प्रकृति का चिरंतन सत्य है। प्रवचनों में हजारों की भीड़, पर सब सुन सुनाकर अपनी राह लेते हैं ऊपर से कौन अच्छा बोलता है कौन अधिक ज्ञानी है कहाँ प्रसाद व पंडाल बढ़िया था इसकी व्याख्या…

वेद मानव का सत्य

हे मानव!यह सत्य जान वेद मानव सम्पूर्ण सृष्टि से ऐसे संवाद स्थापित करता था जैसे मानव मानव के सम्मुख होकर करता है। उसकी पूर्ण आस्था थी कि उसका संदेश ब्रह्माण्डीय ऊर्जाएँ व शक्तियाँ अवश्य ही सुनती हैं और उसी के अनुरूप सभी क्रियाएँ एवं प्रतिक्रियाएँ होती हैं। समस्त ब्रह्माण्ड से वह एकत्व अनुभव करता था क्योंकि इस एकात्म के सत्य का उसे पूर्ण आभास था। सभी दृश्य व अदृश्य ऊर्जाओं और शक्तियों को वह देवता नाम रूपों से संबोधित कर उनका आह्वान कर अपनी उत्थान प्रक्रिया प्रशस्त करने के साधन जुटाने के लिए ऐसे करता था जैसे कि वे सब उसकी बातें समझते-बूझते हैं। वेद युग में यही उसका ध्यान था और ज्ञान व संदेश पाने का स्रोत था। 'गतिशील सूर्य हमें प्रसन्न करें, जल बरसाने वाला वायु हमें प्रमुदित करे, इंद्र व मेघ हमारी वृद्धि करें' इसी प्रकार 'विश्वेदेवा हमें पर्याप्त अन्न प्रदान करें जिससे कल्याण हो' इत्यादि। यहाँ…

सच्चिदानंद का स्वरूप

हे मानव ! तू जानना चाहता है कि कैसा है उस परम का स्वरूप। वह तो केवल प्रकाशवान सत् चित् का आनन्द है। जिसे केवल सत्य से ही जाना जा सकता है और वह भी केवल अपने ही सत्य से। हाँ, उसे पहचान सकते हो इन लक्षणों के द्वारा :- - जो सदा सत्य होने की ही राह दिखाए - जो सदा उन्नत होने की प्रेरणा दे - जो पूर्ण सकारात्मक हो - जो पूर्णता की ओर ही ले जाए - जो बंधन या भार न दे - जो सदा एक निश्चय में रहे - जो सदा ब्रह्माण्डीय सोच (यूनिवर्सल थॉट) में रहे - जो बालक जैसी सरलता निश्छलता पवित्रता निर्मलता युक्त हो - जो अपने-पराए, तेरे-मेरे, पाप-पुण्य से ऊपर हो - जो न गुण न ज्ञान से-न रूप न धन से-न पूजा न अर्चना से-न विधि न विधान से किसी से भी न रीझे न हिले बस सच से…

प्रभु का दीया

मैं आत्मा हूँ आत्मा ही तो हूँ आत्मा में पूर्णतया संतुष्ट आत्मा के ही गुणों में रमने वाली आत्मा से ही खेलने वाली बातें करने वाली औरों की भी आत्मा से सम्पर्क साधने वाली उसी को अनुभव कर आत्मानुभूति में मगन रहने वाली आत्मा के ही गुण विस्तीर्ण करने को यह शरीर प्रभु का ही दिया हो गया प्रभु का ही दीया आयाहि सत्य आविर्भवआओ सत्य अवतरित होओ प्रणाम मीना ऊँ

प्रणाम कहें एक ओंकार भजें चहुँदिश नूर भरें

प्रणाम पूर्ण है। सत्य का विस्तार है। प्रणाम का अर्थ हुआ 'मेरे प्रकृति स्वरूप प्राणों का विस्तार नम्रतापूर्वक '। प्राणों का विस्तार सत्य, निर्भय, निर्द्वन्द्व व स्वतंत्र आत्मा का फैलाव है। जब सत्यमयी आत्मा और आनन्ददायी प्राणों का विस्तार होगा तो सब इंसान अपने आप इन गुणों में आ जाएँगे। जैसे सूर्य प्रकाश फैलने पर अँधेरा अपने आप दूर हो ही जाता है क्योंकि सबकी आत्मा का गुण तो यही है, यही सत्य है सिर्फ मानव इस गुण को भुला बैठे हैं। जब प्रणाम व ऊँ का महामंत्र चारों दिशाओं में गूंजेगा तो स्वत: ही आत्म-जागरण होगा। जब आत्मा जागेगी तो सत् संकल्प जागेंगे और सत् संकल्पों से सही दिशा मिलेगी। सही दिशा में सही कर्म करने की शक्ति भी अवश्य मिलती है उस अपार अजस्र व पूर्ण शक्ति स्रोत से जो पूरे ब्रह्माण्ड का सत्य रूप हो संचालन करता है। सत्य कर्म का संकल्प ही जागरण का संदेश है।…

सत्य ज्ञान का दर्शन प्रणाम का चक्र सुदर्शन

बहुत कुछ कहा संकेतों में, कविताओं में और भाषा की आँखमिचौनी में। पूरा प्रयत्न किया कि नींद से जागे मानव, अर्जुन बने सत्यधर्म जाने अपना मार्ग प्रशस्त करे। समय का संदेश सुना पाऊँ ताकि प्रकृति ने जो अग्नि-परीक्षा संजो रखी है, नियत कर रखी है, आयोजित की हुई है, असत्यता व अपूर्णता के लिए, उसकी भयावहता से, त्रासदी से, असत्य में जी रहे मानव के लिए कुछ राहत का सामान कर सकूँ जैसे आक्रमण वाला पहले पुकार लगाता है कि अपने बचाव की तैयारी कर लो ऐसे ही प्रकृति भी शिवरूपिणी हो तांडव दिखाने लगती है। संकेतात्मक भाषा में बहुत पहले ही संदेश देने लगती है। कुछ मानवों को प्रकृति तैयार भी कर लेती है वह संदेश देकर आगाह करने के लिए। प्रणाम एक ऐसा ही, प्रकृति और उसके कालचक्र के नियम से निरंतर जुड़ा माध्यम है। जो यह सत्य जानता है कि असत्य और अपूर्णता का बढ़ना ही, पूर्णता…

प्रणाम का विधान बताए अवतार की पहचान

भाग-1 स्मृति सागर मथ-मथ मोती पायो, घट भीतर ज्ञान भक्तियोग जगायो। सत्य, कर्म व प्रेम का पाठ पढ़ायो, प्रभु कृपा अनंता जान मन मुस्कायो। कोई पूछे मेरा परिचय। संबोधन पूछने वाले की श्रद्धा पर निर्भर करता है। तू कौन है, तुम क्या हो, वैसे आप करती क्या हैं आप हैं कौन? प्रश्नों के कई रूप हो सकते हैं पर उत्तर तो सिर्फ एक ही है। शायद लोग मुझे पागल समझें जो उनकी बुद्धि अनुसार, उन्हें सही ही लगे। हर युग में सत्य, कर्म व प्रेम का चिंतन, विचारक और प्रचारक पागल ही समझा गया और कई बार मारा भी गया यहां तक कि गीता देने वाले श्रीकृष्ण को भी गांधारी ने वंश नाश का श्राप दे डाला। पर अब उत्तर तो देना ही होगा मुझे। अगर मेरे अंदर बैठा अविनाशी तत्व मेरे मुख से यह कहलवाए कि मनु शरीर में वही अविनाशी तत्व है जो सब में व्याप्त है:- मैं…

कहे प्रणाम पुकार पूर्णता को कर अंगीकार

स्मृति अनंत सागर भरे मन की गागर स्मरण की बना मथनी बुद्धि की बना डोर इच्छा की लगा शक्ति ध्यान का लगा जोर काल का चक्र घूमा पाया अनमोल रतन ज्ञान का मानव विधान का वेद विज्ञान का नव निर्माण का कर्म प्रधान का सत्य विहान का स्नेह समान का विश्व कल्याण का प्रणाम अभियान का आज के मानव ने विज्ञान के बल पर, अपनी लगन और मेहनत के बल पर सब भौतिक व ऐशोआराम के साधन अपने लिए जुटा लिए हैं। स्वर्गिक सुख पाने की इच्छा में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। फिर भी परेशान है मानव तनाव, कुण्ठा, निराशा, घृणा, द्रोह, नई-नई बीमारियाँ और चारों ओर हिंसा का नग्न तांडव। अपनी प्रकृति पर और प्रकृति के प्रकोपों पर विजय पाने की दौड़ में भागते-भागते थक गया है मानव और अब ढूँढ़ रहा है शान्ति और आनन्द। सच्चाई क्या है? आनन्द कैसा होता है, क्या है परमानंद, जब इन…

जीकर गीता ज्ञान हो मानव महान कहे प्रणाम

भारत एक धर्मपरायण देश है। कोने-कोने में गीता गूँजती है। जन्माष्टमी पर तरह-तरह के आयोजन कर गीता के सृजनहार को याद किया जाता है। खूब धन व्यय किया जाता है। भजन-कीर्तन की भरमार रहती है मगर गीता के वचनों पर चलने की बात, उसे जीकर जीवन धन्य करने की बात इस पूजा-पाठ के शोरगुल में अनायास ही कहीं खो गई है। अगर गीता को गुनकर जीया जाए तो भारत की सारी समस्याएँ खुद ही हल हो जाएँगी। गीता आत्मा है भारत की उत्कृष्ट संस्कृति की। भारत के शरीर को तो आज़ादी मिली मगर आत्मा अभी भी स्वार्थी मानसिकता के गिरवी रखी हुई है और जब तक आत्मा जागृत नहीं होती शरीर को तरह-तरह की व्याधियाँ सताएँगी ही। भारतीयों का धर्म में विश्वास तो है पूजा पाठ भी है पर कर्म एकदम नदारद है। गीता के दूसरे अध्याय में इक्तीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं- धर्म्याद्धि युद्धाच्छेयोऽन्यात्क्षत्रियस्य न विद्यते अपने धर्म…