सत्य संभाषण

यही सत्य है कि जो सोचो वही बोलो और करो भी, मनसा-वाचा-कर्मणा पूर्णरूपेण सत्य होओ। इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं कि यह तो करो ही, साथ-साथ कुछ और इसके अतिरिक्त भी बोलते रहो। जब मनसा-वाचा-कर्मणा सत्य हो जाते हैं तो प्रतिपल वाणी से केवल सत्य ही उच्चरित होता है-निर्भीक सत्य। कथा-प्रवचनों को नकारना नहीं है पर सोचो जरा कथा-कहानियों का सत्य कौन जानता है! केवल पढ़ा-सुना ज्ञान मात्र है। पूर्ण सत्य तो केवल जीकर जाना जाता है और जब बोला जाता है तो उसी क्षण का सत्य होता है। प्रणाम के लिए सत्य वही है जो जीकर जाना जाए। धार्मिक पुस्तकें शास्त्रादि सब ज्ञानमय हैं उनको बखानना कथावाचक या प्रवचनकारी का कर्म है, सत्यात्मा का धर्म नहीं। सत्यात्मा जो बोलती है वह जीवन का तत्व सार होता है, प्रतिपल चैतन्य ध्यान की प्रस्तुति होता है। संभाषण-निरर्थक संभाषण भी असत्य ही है, वाणी विलास है। यदि प्रवचनकारी या कथावाचक हो…

स्पष्टता अथवा पारदर्शिता

स्पष्टता व पारदर्शिता व्यक्ति की चेतना के विकास को दर्शाती है। यह मनुष्य की प्रगतिशीलता गहराई श्रेष्ठता विस्तार एवं एकाग्रता को विकसित करती है। यह मस्तिष्क शरीर और जीवन के सभी बंधनों को काटने से ही आती है। इसमें तभी वृद्धि होती है जब हम अपने अहम् के मकड़जाल से बाहर आते हैं और आत्म-प्रकाश के अनुभव लेना आरम्भ करते हैं। जब हम संसार में आत्मा की इच्छा व उद्देश्य को अनुभव करते हैं और एकात्म के चिन्तन में निमग्न रहते हैं तब हम पारदर्शिता के चरम बिंदु तक पहुँचते हैं। पारदर्शिता से ही हम अपने सत्य की खोज कर उसको जान सकते हैं, उसे पा सकते हैं। कई पद्धतियाँ हैं जिन्हें नवयुग के आध्यात्मिक गुरुओं ने इस लक्ष्य के निमित्त बनाया है और विकसित किया है। परंतु इस प्रकार के जो भी नुस्खे हैं उनके लिए दृढ़विश्वास साहस लगन तथा आत्मसमर्पण की आवश्यकता होती है। यही एकमात्र शक्ति है…

सच्ची विद्या केवल तकनीक नहीं

कोई भी विद्या जब तकनीक बन जाए और सब बिना विशेष प्रयत्न किए प्रयोग करने लगें, मनचाहे ढंग से उसका उपयोग करने लगें, विशेषकर स्वार्थी या व्यवसायी मनोवृति के हिसाब से तो उसका प्रभाव बहुत कम हो जाता है। जिस विधि से किसी को कुछ प्राप्ति होती है यदि वो उसे ही तकनीक बनाकर सिखाने लगे तो उससे कुछ भी प्राप्ति नहीं होने वाली। इसलिए यह अतिआवश्यक है कि पहले सुपात्र बना जाए फिर तकनीक केवल सहायता के लिए बताई जाए क्योंकि तकनीक कभी भी गारंटी नहीं है कि ऐसा करने से प्राप्ति हो ही जाएगी। तकनीक को ही दुहराए जाने से कुछ प्राप्ति हो जाएगी ऐसा लोगों को केवल भ्रम ही है और उनके इस भ्रमित मन का लाभ उठाकर कुछ व्यापारी गुरु स्वामियों ज्योतिषाचार्यों कर्मकाण्डी पंडितों आदि की दुकानें खूब चल पड़ी हैं। आज तरह-तरह की विधियों को नए-नए नाम देकर अज्ञानी जनता का शोषण बखूबी होता है।…

सब मानव हैं केवल मानव

हे मानव !हम सब मानव हैं केवल मानव। हमें मानव बनना है, दूसरे मानवों के साथ कैसा व्यवहार करना है यह ज्ञात होना चाहिए। हमें यह अनुभव करना है कि हम सभी एक ही स्रोत से उपजे हैं और पांच तत्वों से बने हैं। धरती जल वायु अग्नि और आकाश। हमें अपने अंदर इन्हीं पांच तत्वों के गुणों को सींचना व विकसित करना चमकाना सुधारना व परिष्कृत करना है। उदाहरण स्वरूप-पृथ्वी का गुण है धैर्य, वे सभी को आसरा देती हैं चाहे वह संत हो या पापी। वायु जीवन दायनी है। जल तत्व करुणा का प्रतीक है। आकाश सभी को सुरक्षा और सम्बन्धता का भाव, Sense of Belonging देता है। अग्नि हमारे भीतर सभी अपूर्णताओं को भस्म करती है और जैसे अग्नि की लपटें ऊपर की ओर उठती हैं वैसे हम सब भी उगें और ऊपर की ओर उत्थान करें। बहुत सारे धर्म और धार्मिक पंथ हैं जो एक दूसरे…

मन की शक्ति

मन की शक्ति अपरम्पार चले प्रकाश गति से भी तेज। प्रकाश से अधिक प्रकाशवान। करे तन-मन प्रकाशित। क्षणांश में तय कर आए भूत और भविष्य का अन्तहीन सफर। सृष्टि के प्रारम्भ से सृष्टि के अंत तक पहुंच जाए पलक झपकते ही। सदा गतिवान मन को यदि मिल जाए सही दिशा तो कुछ भी असम्भव नहीं। मन की शक्तियों का महत्व वही समझ सकता है जिसने यह अनुभव पाया हो, मन की शक्ति को पहचाना हो। उन्नत मन क्या-क्या नहीं कर सकता इसकी कल्पना भी साधारण व्यक्ति धारणा शक्ति की समझ के बाहर है। असाधारण धारणा, असाधारण स्मृति, धारणा शक्ति, ध्यान से ही संभव है वरना हाथ से डोर खिसकती मालूम होती है। सिर्फ असाधारण स्मृति धारणा व ध्यान से ही यह शक्ति पाई जाती है, यह भी सत्य नहीं है। मन-मस्तिष्क का इस स्तर तक विकास कि वह अपूर्व शक्तियाँ प्राप्त कर ले, यह तभी संभव है जब मन का…

केवल एक ही अर्पण समर्पण

अपने प्रत्येक भाव विचार व कर्म को अनन्य भक्ति व पूर्ण आस्था सहित परम सत्ता को समर्पण ही ब्रह्माण्डीय युगचेतना से संयुक्त होने का पूर्ण योग होने का मार्ग है। ऐसा योग जहां मानव शरीर सभी शक्तियों ज्ञानियों ऋषियों मुनियों वैज्ञानिकों युगदृष्टाओं अपने-अपने युग के सभी उन्नत व उत्कृष्ट ज्ञान विचार व उद्देश्य को मूर्तरूप देने का माध्यम बन जाता है। सभी ज्ञानों के पार जाने में सक्षम होता है बुद्धि की सीमितता से परे जाकर ही पराज्ञान का पूर्ण सत्य जान लेता है। इसी कारण असीम अखण्ड अनुराग पूर्ण भक्ति-आस्था का मूर्तरूप बनकर-चेतन तत्व का प्रवक्ता हो जाता है उसमें अपना कुछ नहीं होता उसका पूरा अस्तित्व युग चेतना का प्रवाहक बन जाता है। ऐसे भक्तिमय शुद्ध प्रेममय मानव ही तारनहार होते हैं। स्वयं को तो तार ही लेते हैं- तभी तो उस पार की खबर जानते हैं वही बताने को अपने आंतरिक अंतरिक्ष से वापिस आकर सभी प्राणियों…

कोई भी कल्पना निरर्थक नहीं होती

मानव जो भी कल्पना करता है वह सत्य ही होती है। मानव में कल्पनाशक्ति ब्रह्माण्ड, सृष्टि, की दी हुई है और मानव ब्रह्माण्ड की ही अनुकृति है 'यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे' यह भी सत्य ही है। जो भी कल्पना में आ जाता है वो या तो घटित हो चुका होता है या घटित हो रहा होता है या कहीं घटने वाली घटना की पूर्व सूचना होता है। कल्पना को बखान पाना या उनका रहस्य जान पाना साधारण मानव बुद्धि से परे है। कल्पनाओं को ही कुछ पुरुषार्थी मानव सत्य संकल्प जान कर उन पर पूरी शक्ति केन्द्रित कर ध्यान लगाकर निरन्तर कर्म कर नए-नए आविष्कार कर लेते हैं साहित्य रच लेते हैं, अनमोल कलाकृतियाँ बना लेते हैं जो चमत्कारों की श्रेणी में आते हैं। वैज्ञानिकों लेखकों कलाकारों आदि-आदि यहाँ तक कि युगदृष्टाओं के उत्थान का आधार भी कल्पना ही होता है। जब से सृष्टि बनी तब से अब तक जो…

कर्मों का चक्र

अगला-पिछला सब दिमाग से निकालकर जो भी परिस्थितियाँ व कर्म सामने हों उसे पूरे मनोयोग व पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से पूजा की तरह, तपस्या की तरह करने में ही निस्तार है। जो भी कर्म प्रकृति ने स्वत: ही सामने ला खड़ा किया है उसी से कर्म कटने का विधान, प्रकृति का विज्ञान व नियम होता है। उसे नकारने या बचने के उपाय ढूँढ़ने में समय नहीं गंवाना होता। जितनी श्रद्धा से उससे गुजरोगे उतना ही उसका जो भी कर्जा देना है वो निबट जाएगा। कर्मों को पूर्णतया खेल लेना है तभी वो पीछा छोड़ेंगे। थोड़ा भी बेमन से या खीजकर जबरदस्ती किया गाली-सी देकर या 'लैफड़' के अन्दाज में, तो वैसी परीक्षा फिर से सामने आ ही जाएगी कभी न कभी। जैसाकि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट कहा- 'अपने आपसे सामने आ खड़ा हुआ युद्ध तो भाग्यशाली को ही प्राप्त होता है।' युद्ध करते-करते मरे तो स्वर्ग और…

जीवन गति व आत्म-प्रवाहक

जीवन बहुत सौन्दर्यमय है जब तक आराम से चलता रहता है थोड़ा हँसकर, थोड़ा रोकर पर जब कोई बड़ी परीक्षा सामने आ खड़ी होती है तब हमारी अच्छाई और सच्चाई दोनों की परीक्षा होती है। पर जैसे पढ़ाई की परीक्षा आने पर क्या होता है जिन्होंने खूब तैयारी की होती है उनके अन्दर एक उमंग-सी रहती है। हाँ, भय-सा भी होता तो है मगर वो व्यथित करने वाला नहीं होता और जिनकी तैयारी ठीक नहीं होती वो ही भयभीत विचलित व्यथित हैरान और परेशान होते हैं। ऐसी बात ही जीवन की भी होती है साथ-साथ तैयारी भी करते जाएँ तो परीक्षाओं का भय नहीं व्यापता और पास होने पर उन्नति होती जाती है और फेल होने पर और अधिक तैयारी का दृढ़- संकल्प। जितनी परीक्षाएँ उतना ही उत्थान अवश्यम्भावी है। जीवन एक महायज्ञ है, हवन है जिसकी सफलता उसमें भाग लेने वाले सभी लोगों पर निर्भर करती है जैसे एक…

भाव का ही भाव है

समय की युगचेतना कलमबद्ध करवा रही है, फिर भी लोग क्यों नहीं समझ पा रहे या समझना ही नहीं चाहते या समझ कर भी अनजान बनते हैं। एक ही उत्तर है- अकेली ही तो है युगचेतना भी अकेला ही तो लगा रहा भागीरथ। प्रत्येक मानव जो क्षण की युगचेतना से संयुक्त, योग स्थित हो जाता है वह तो अकेला ही चल पड़ता है। युगचेतना जानती है कब उसका संदेश रंग लाएगा। इस कारण उन्नत मानवों की कड़ी, Chain, सी बनती जाती है। जो अपनी पारी खेल चुके उन्हें अगली कड़ी से जुड़कर पूर्ण सहयोग करना ही होगा अपनी छवि को बचाने का उद्यम छोड़कर। यही है प्रणाम का सुपात्र को सहयोग। सुपात्र को सहयोग सबसे बड़ा योग, सुपात्र को जानना ही सच्चा विवेक है। सच्चे विवेक वाले मानव को युगचेतना सदा ही रूपांतरित कर अग्रसर करती चलती है वो किसी एक छवि में बंधता नहीं, किसी एक भाव भंगिमा, Style,…