सत्य संभाषण
यही सत्य है कि जो सोचो वही बोलो और करो भी, मनसा-वाचा-कर्मणा पूर्णरूपेण सत्य होओ। इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं कि यह तो करो ही, साथ-साथ कुछ और इसके अतिरिक्त भी बोलते रहो। जब मनसा-वाचा-कर्मणा सत्य हो जाते हैं तो प्रतिपल वाणी से केवल सत्य ही उच्चरित होता है-निर्भीक सत्य। कथा-प्रवचनों को नकारना नहीं है पर सोचो जरा कथा-कहानियों का सत्य कौन जानता है! केवल पढ़ा-सुना ज्ञान मात्र है। पूर्ण सत्य तो केवल जीकर जाना जाता है और जब बोला जाता है तो उसी क्षण का सत्य होता है। प्रणाम के लिए सत्य वही है जो जीकर जाना जाए। धार्मिक पुस्तकें शास्त्रादि सब ज्ञानमय हैं उनको बखानना कथावाचक या प्रवचनकारी का कर्म है, सत्यात्मा का धर्म नहीं। सत्यात्मा जो बोलती है वह जीवन का तत्व सार होता है, प्रतिपल चैतन्य ध्यान की प्रस्तुति होता है। संभाषण-निरर्थक संभाषण भी असत्य ही है, वाणी विलास है। यदि प्रवचनकारी या कथावाचक हो…