हो प्रेममय विश्व सारा वेद का पसारा

हमारी वैदिक विद्या को शब्दों व तकनीक में नहीं बांधा जा सकता। वह तो अनुभव और प्रगति की निशानी है। उसको भुला देने पर ही उसकी अलौकिकता व दिव्यता खत्म होती जा रही है उसका सतत् प्रवाह रुक गया है उसी को तो अब खोलना होगा आत्मशक्ति द्वारा जन जागरण करके प्रणाम के सिपाही बनके। हमारी गंगा-जमुना जैसी निरंतर बहने वाली संस्कृति मैली हो रही है। अब रास्ते के भ्रष्ट पत्थर हटाने ही होंगे।

अपने इक अदना तमाशे के लिए, सच को सूली पर चढ़ाया आपने। चारों ओर अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट और निम्न कोटि की व्यापारिकता छाई है, देश पर आए संकटों का एक तमाशा सा बना दिया जाता है। उसमें भी कुछ न कुछ किसी का क्या लाभ हो सकता है इसी में सारी बुद्धि और शक्ति लगाई जाती है। सब जान समझ रहे हैं यह बात। कुछ ऐसी मानसिकता हो गई है कि समस्याएँ हैं तो हमारा वजूद है। सब गुटों के लोग समस्याओं का हल अपने-अपने तरीकों से ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं। धर्मानुयायी कहता है कि मेरे पास हल है, राजनीतिज्ञ कहता है मेरे पास हल है, तो समस्या हल क्यों नहीं होती जब भी ऐसी मीटिंगें और गोष्ठियाँ होती हैं, जहाँ समस्याओं के हल ढूँढ़े जाते हैं तो एक ही बात समझ आती है कि सब समस्याओं की जिम्मेदारी एक दूसरे की गलतियों पर ही डाल दी जाती है या अपने-अपने व्यक्तिगत विचारों को ही हल बताने की भरसक कोशिश की जाती है। लच्छेदार भाषा और ज्ञान को आधार बनाकर खूब बोला जाता है, मौखिक हल ढूँढ़ा जाता है। व्यक्तिगत योगदान कम ही देखने को मिलता है। हर समस्या को व्यापारिक दृष्टिकोण से ही मापा-तोला जा रहा है। पर एक बात अटल सत्य है तथा जो काल का नियम भी है। जब-जब ऐसे प्रश्न चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं उत्तर अवश्य सामने ही होते हैं। पर उत्तर समझ कर्म करने की शक्ति की प्रेरणा देने के लिए कोई कर्मयोगी चाहिए।

अब समय है आत्मा को जगाने का, देशभक्ति को जगाने और इस दिशा में कर्म करने की शक्ति को जगाने का। जनशक्ति प्रभुशक्ति है। जनसाधारण यदि निर्णय कर ले तो जो लोग भारत माँ का स्वर्गिक सौंदर्य नष्ट कर रहे हैं स्वयं ही निर्बल हो जाएँगे। जन जागरण ही प्रश्न का उत्तर है। हर वह बात जो असत्य है अपूर्ण है घिनौनी है देश के हित की नहीं उसके खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठानी है। देश उनका नहीं जो बरबाद कर रहे हैं। उनका है जो देश का भला चाहते हैं और सत्यता से अपना कर्म कर रहे हैं। एक ओर लाखों लोग भूखे हैं और दूसरी ओर लाखों टन अनाज सड़ता है। सही नीतियाँ बनाने की उनको फुर्सत कहाँ जो सिर्फ अपने ही हित की नीतियाँ बनाने में लगे हैं। करोड़ों की लागत से सैकड़ों मंदिर हर साल बन जाते हैं क्यों नहीं उस लागत से गरीबों के रहने की या उनको शिक्षा देने के स्थान की व्यवस्था की जाती। नेहरू जी ने कहा था- स्कूल, नदियों पर बाँध व तकनीकी संस्थान ही हमारे आधुनिक मंदिर हैं।

समस्याओं का बना रहना ही चंद लोगों के जीवन का आधार बन गया है। आश्वासन दिया जाता है और आश्वासन को सच मानते-मानते जनसाधारण निष्क्रिय हो आलसी हो गया कि शायद अब कुछ हो इस बार कुछ ठीक हो पर वह इस बार कभी नहीं आता और न आएगा। वह इस बार जनशक्ति को ही लाना होगा। जागो भारतीयों विशेषकर कट्टरपंथियों! आचार्य रजनीश ने बाहर विदेश जाकर उनको अपनाया और बताया कैसे कुंठाओं से बाहर आएँ अपने भ्रष्ट आचरण को भी आनन्द में बदल दें। विदेशों ने उनका ज्ञान अपना लिया और खूब भुना लिया और व्यवसाय बना लिया उनके मरने के बाद। यहाँ भारत में हमने जो हिंदू कनवर्ट हुए उन्हें भी वापिस नहीं लिया अपनाना तो दूर की बात थी। भारत में ही सब टुकड़ों में बाँट दिया। जो भारतीय बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े-लिखे और अंग्रेजी सभ्यतानुसार रहने-सहने लगे उनका अलग ही सेक्टर बना दिया। इससे खाई बढ़ गई है इसे ही भरना आवश्यक हो गया है। क्योंकि अंग्रेजी सभ्यता में पले बच्चे भी कितने उत्सुक हैं अपनी सही सभ्यता व संस्कृति के बारे में जानने के लिए यह मुझे मालूम है। मगर वह झूठी आडंबरवाली संस्कृति नहीं चाहते। हमें इन्हें अपनाना है चाहे जैसे भी हो। जैसा ईसा मसीह ने कहा-पहला पत्थर वह मारे जिसने कभी पाप न किया हो।

हमें इन बच्चों को आलोचना की अपेक्षा प्रेम से समझाना है। धीरे-धीरे अपनी संस्कृति व सभ्यता की सत्यता व उत्तमता बतानी है उदाहरणस्वरूप बनकर। क्योंकि अब ये बच्चे मुड़े हैं। अपनी सभ्यता की ओर खुल रहे हैं और इसके लिए हमें अंग्रेजी का भी धन्यवाद करना चाहिए क्योंकि जो ज्ञान बाहर वाले यहां हमें पुस्तकों के रूप में बेच रहे हैं वहीं से ये लोग हमारी धरती के बारे में जान रहे हैं।

कैसी विडम्बना है कि भारत के बारे में बाहर के लोग लिख रहे हैं तब हमारे बच्चे, जो अंग्रेजी ही जानते हैं, हमारी संस्कृति के बारे में उससे ही जान रहे हैं। कितना कड़वा सच है कि हमारे धर्म के ठेकेदारों ने धर्म में अपना-अपना विचार लगाकर हमारे हिंदीभाषियों को जो चाहा घोंटकर पिला दिया और हमारे अंग्रेजीभाषी भारतीयों को जो विदेशी चाहते हैं घोंटकर पिला रहे हैं सिर्फ पढ़ा और सुना हुआ ज्ञान ही ज्ञान का मापदंड बन गया है। तथ्य और सत्य कहीं भी पूर्णरूप से उजागर नहीं हो पा रहा। इसी सत्य को सामने लाना है।

अब समय नहीं है दोषों को बखानने का, खाई को और बढ़ाने का। अगर हम समझते हैं कि विदेशी प्रभाव में पीढ़ी बिगड़ी है तो क्यों नहीं हम उन्हें प्रेम से सच्ची बात बताएँ। यह भी सेवा होगी माँ भारती की उसके भटके बच्चों को सही राह बताकर उनको प्रेम और विश्वास देकर। उनकी सच्चाई को भी समझें उनके पास जो भी अच्छाई है उसे आदर दें। सेवा खाली गरीबों की ही नहीं होती ये जो बच्चे संस्कृति से गरीब हुए इनकी भी सेवा होनी चाहिए अगर हम इन्हें हिकारते नकारते रहे तो यह दूसरी ओर स्वत: ही चले जाएँगे। विवेकानंद जी ने कहा था- ‘एक हमें छोड़ेगा तो दूसरी ओर एक बढ़ेगा। फिर जो वह पढ़ाएँगे हमारी संस्कृति के बारे में उसको ही सच मानेंगे जो कभी भी पूरा सच नहीं होगा।

जो सत्य हमारी पावन धरती के मनीषी जानते हैं, जीते हैं और अनुभव करते हैं वह सत्य सब तक नहीं पहुँच पाता। यहाँ तो दुहरा आक्रमण है अंदर से अधकचरे ज्ञान वाले पांडित्य बघारने वाले व्यापारियों ने भोली जनता को भ्रमित कर रखा है उधर से पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित लोग ज्ञान की प्यास में सत्य जानने की आस में विदेशी साहित्य पर निर्भर हो पैसे विदेशी पुस्तकों पर लुटा रहे हैं। मुझे इनसे कोई शिकायत नहीं क्योंकि इनके द्वारा कम से कम सच्चाई जानने की कुछ तो इच्छा जगी हमारे बच्चों में। मगर अब हमें समय पहचानना है। अब हमारे बच्चे तैयार हो रहे हैं सच्चाई जानने के लिए तो हमें उनके सामने सच्चाई लानी है। उदाहरण बनकर सत्य-ज्ञान बताना है। नई पीढ़ी में जो आध्यात्म के प्रति रुझान आया है वह यही संकेत क र रहा है। नौजवान पीढ़ी अपने मन की मज़ीर् से जिंदगी जीकर सीखना चाह रही है।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि आज की नौजवान पीढ़ी को सत्यता सच्चाई से वैज्ञानिक रूप से बतलाई गई तो बदलाव अवश्यम्भावी है। आर्थिक रूप से निर्बलों को कर्म का पाठ और आर्थिक रूप से सबलों को धर्म का पाठ पढ़ना ही होगा। तभी तो गंगा और जमुना का संगम होगा संतुलन होगा, सत्य और धर्म विजयी होगा। अब समय आ गया है बताने का कि वेद क्या हैं? विज्ञान क्या है? विद्या क्या है और ज्ञान क्या है? और सबसे बड़ी बात सत्य-धर्म क्या है? सत्य धर्म है एक दूसरे को नि:स्वार्थ प्रेम करना, एक दूसरे के जीवन को उल्लास, उमंग और आनन्द से भर देना। प्रगति के पथ पर साथ-साथ एक दूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ना मेरे तेरे से ऊपर उठना। जिसमें सबका भला हो वही करना। यही है समय की पुकार, कृष्ण होकर आज के अर्जुन को फिर गीता बतानी है। यही होता है संभवामि युगे-युगे। प्रकृति की उत्थान प्रक्रिया को युगदृष्टा जानते हैं।

यह समय की मांग (टाइम रिक्वायरमेंट) है।
अब सत्य को उजागर होना ही है, झूठ को जाना ही है
क्योंकि सत्यमेव जयते का उद्घोष
इसी पावन भारत भूमि से ही हुआ है

यही सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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