अब प्रकृति का तांडव अवश्यम्भावी है क्योंकि मानव तीर्थाटन व पर्यटन का भेद भूल गया है। तीर्थाटन प्रकृति के सन्निकट होकर उसकी विराटता व संवेदनशीलता को, विचारों व सांसारी भावों से रहित होकर, अनुभव कर आत्मसात् करने की प्रक्रिया है। सारे तनावों और भारों से मुक्त होकर अपने स्रोत के आनन्द को अनुभव करना है। कम से कम शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ केवल प्रकृति को ही पीना है जीना है।
समाचार मिला लेह में बादल फटा भयंकर तबाही। दुख की अपेक्षा क्षोभ व एक अजीब सी संतुष्टि का भाव जगा। समझाते-समझाते आयु बिता रही है प्रकृति की मानव पुत्री पर… हे मानव! तू तो अड़ा है अपनी ही मनमानी करने पर। जो कुछ थोड़े अछूते पवित्र स्थल हैं धरा पर वहाँ भी उस स्थान के विशुद्ध विस्तार के आभामंडल के अनुरूप होने की अपेक्षा अपनी ही धुन में अपने ही भोगों में लिप्त जगह-जगह घूम-घूमकर भाग-भागकर सारा वातावरण विषाक्त कर रहा है। मादक पदार्थों की तस्करी शराब और शारीरिक तुष्टियों के कीटाणु ही फैला रहा है। क्यों पवित्र स्थलों की पवित्रता व शान्त स्तब्धता भंग कर रहा है।
वहाँ जाकर अच्छे भावों शुद्ध विचारों व आत्मानुभूति की हरियाली उगाने की अपेक्षा क्यों दूषित भावों व अपनी मानसिक तुष्टियों के बीज बो रहा है। वहाँ का सीधा सरल शान्त जीवन भी नष्टï करने पर तुला है।
ओ मानव! प्रकृति के मन वाला हो जा। प्रकृति की उत्पत्ति है तू, प्रकृति के नियम समझ संकेत समझ उसी के अनुरूप अपने को संवार और कर आनन्द विस्तार।
यही है तेरा कर्म धरती पर।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ