सेवा सौभाग्य निधि जीवन की

मानव जीवन एक सम्पूर्ण व्यवस्था है उसे टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता। अधिकतर मानव यही सोचता है कि समय आने पर देखा जाएगा। पूरे जीवन की तैयारी साथ-साथ ही करनी होती है। खूब काम करो भरपूर कमाओ मस्ती से जियो। पर क्या मानव किसी भी विधि से एकदम सही जान सकता है कि कैसे भविष्य पूर्ण सौभाग्यमय रहेगा।

जब कठिनाइयाँ व कष्ट आते हैं तो चिन्तित व विक्षिप्त होकर भाग दौड़ मचाता है मानसिक शारीरिक कष्ट भोगता है। समस्याएं जीवन से पूरी तरह मिटाई नहीं जा सकतीं। बीमारियाँ खत्म नहीं की जा सकतीं। वृद्धावस्था हटाई नहीं जा सकती। भाग्य किसी और से बदला नहीं जा सकता। पर उससे कैसे कम से कम व्यथित होकर धैर्यपूर्वक गुजरा जा सकता है यही सेवा के सत्कर्म व मानवता के धर्म के पालन का सुफल है।

कौन है जो जीवन में कष्टों से नहीं जूझा। सत्य तो यह है कि अधिकतर महान विभूतियाँ अपार कष्टों व दुष्कर कठिनाइयों की तपस्या से उबर कर ही उत्कृष्ट जीवन उपलब्ध कर पाईं। यह तो महान जीवनियों की बात है पर एक सत्य प्रत्येक मानव को समझना है। साधारणतया मानव सरल सा अच्छा जीवन बिताना चाहता है। अब सभी को तो दार्शनिक, युगदृष्टा, महान लेखक, गुरु, स्वामी, बड़ा उद्योगपति या नेता आदि होने का कर्म प्रकृति ने नहीं सौंपा है। तो अच्छा सौंदर्यमय जीवन सफर तय करने में तीन बातें प्रमुख हैं। भाग्य में जो कुछ है उसे प्रभु कृपा मानना, सुचारु रूप से जीवन चलाने में अपनी पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं सहित पूर्ण कर्म करना और सुख शान्ति के लिए सेवा का पुण्य अर्जित करना। इस प्रकार जीवन भर जो भी कमाया वही तो सामने आयेगा। जो बीज बोओगे वही फसल काटोगे।

दिन आराम से गुज़रे मानव दिन-रात इसी जुगाड़ में लगा रहता है। इन सब क्रियाकलापों में वह एक बात पूर्णतया भूल जाता है, वह है सेवा। भारतीय संस्कृति में अतिथि सत्कार, अपने से बड़े गुरु बुजुर्ग पड़ोसी नातेदार सम्बन्धियों आदि की सेवा का बहुत महत्व रहा है। पर अब व्यवसायिक मानसिकता के अधीन जहां कुछ लाभ या इंद्रिय तृप्ति की बात हो वहीं तन मन धन लगाते हैं जुए की तरह। शुद्ध तन मन से थोड़ी सी भी सेवा का ध्यान ही नहीं आता।

जिसको एक प्यार भरे भावनात्मक बोल या कंधे की जरूरत है उसे सोने की छड़ी तो पकड़ा देंगे क्योंकि मानवीय कंधा या हाथ बहुत ही व्यस्त है अपना आने वाला समय व अवस्था संवारने में। वह अवस्था जो शायद अपार धन होने पर भी मानवीय संवेदनाओं को तरस जाएगी। सेवा ही सेवा कमा सकती है और सेवा कहीं बाहर ढूँढ़नी नहीं पड़ती। जीवन के हर पल के साथ प्रभु ने सेवा का अवसर लगा ही रखा है। प्रभु की प्रत्येक निधि जड़ चेतन को उसकी अमानत नियामत समझ प्रेममय मन से सजाना संवारना व आनन्द देना ही सबसे बड़ी सेवा है। आज का मानव वह दान देना ही भूल गया जिसमें कुछ भी खर्च नहीं होता-अभय-दान, संस्कार-दान, प्रेम-दान, क्षमा-दान, मान-दान, ज्ञान-दान, सेवा-दान, आदि। हाँ , धन देकर अपने अहम् की तुष्टिï तथा कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेता है।

धन से समय नहीं खरीदा जा सकता। पवित्र, प्रेममय सेवा से ही समय अनुकूल होता है और समय अनुकूल होना ही तो सौभाग्य है। सेवा से शुभेच्छा व आशीर्वाद की अमूल्य सौभाग्य निधि का संयोग बनता है। सेवा-दान कभी विफल नहीं होता। हाँ, उसका प्रतिफल कहीं और से ही सही, मिलता अवश्य है। यही प्रकृति का अटल नियम है। नि:स्वार्थ सेवा अमूल्य भविष्यनिधि जीवन की।

  • प्रणाम मीना ऊँ

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