सृष्टि की गणना

हे मानव !
ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण व्यवस्था का सम्पूर्णता से संचालन प्रकृति के शाश्वत नियमों द्वारा ही हो रहा है। इन नियमों के विपरीत जाकर अपने कर्मों और भाग्य को दोष देना बन्द कर। सारी सृष्टि के साथ लयमान लयात्मक व गतिमान होने हेतु दिव्य प्रकृति के नियमानुसार चलना ही होगा। यही सच्चा धर्म है। जो दिव्यता और प्रभु की ओर ले जाएगा। प्रभु बना प्रभु से मिलाएगा।

सृष्टि की गणना में ही पूर्ण ज्ञान समाया है। उसे ही तो जानना समझना गुनना व जीना है जो पूर्णता की ओर ले जाएगा। तब यह प्रश्न ही मिट जाएगा भगवान क्या है कौन है कहाँ है। सभी संशय व द्वंद्व मिट जाएँगे। मानव अस्तित्व का रहस्य उजागर हो जाएगा।

० शून्य- ब्रह्माण्डाकार सबका स्रोत अनन्य, पूर्णतया कर्ताभाव व अहंकार भाव रहित। 1. एक – एक केवल एक ही सत्य-सत्य। एक ओंकार एक ही परम शक्ति वान ईश्वरीय सत्ता एकात्मकता। 2. दो – दो विपरीत सदा से थे, हैं और रहेेंगे सृष्टि में। एक दूसरे की पूर्णता को गतिमान रखते हुए सन्तुलन की तत्बुद्धि जगाते हुए। 3. तीन – तीन गुण प्रकृति प्रदत्त मानव की प्रकृति व प्रवृत्ति के द्योतक रज तम सत गुणों से संबोधित, मानव के कर्म खेलने-खिलाने व धुलवाने के माध्यम। 4. चतुर्भुज – चतुष्कोण पूर्णता का आकार साकार। पूर्णतया उन्नत व उत्कृष्ट मानव का प्रतीक। चक्र-शंख-गदा-कमल पूर्णता की प्रतीकात्मकता। पूर्ण निर्लिप्तता व हज़ार गुणों का प्रतीक कमल, पूर्ण आत्मबल व शक्ति और अपूर्णता पर भरपूर वार की प्रतीक गदा। पृथ्वी पर अवतरित अवतारी मानव इन सबका मूर्त उदाहरण।
५ तत्व – पाँच तत्व मानव अस्तित्व केआधार। पूर्णतया सटीक आनुपातिक व सही मिश्रण पाँचों तत्वों का जीवन्तता का प्रतीक। इनके गुण व कर्म-धर्म का ज्ञान जानकर जीवन पूर्णता से और जीवन्त होकर जीना।
6. प्रभुता के गुण – ज्ञान वैराग्य धर्म यश शोभा व ऐश्वर्य, चिन्तन-मनन व धारण करने योग्य गुण तत्व ! 7. सात आयाम- सात रंग सात चक्र सात स्वर सात आकाश सात पर्तें अवचेतन मन की, सात समुद्र सात ऋ षि – सप्तऋषि – परा व अपरा ज्ञान को संजोए रखने वाले व सुपात्र को ही स्वत: प्रदान करने वाले, सात ही दिन सप्ताह के और सात ही सोपान मानव उत्थान के।
8. आठ प्रहर- सृष्टि की ऊर्जाओं की गति को निरन्तर गतिमान रखते, काल का चक्र घुमाते आठ प्रहर। मानव की बाह्य व आन्तरिक देखी-अनदेखी क्रियाओं और प्रक्रियाओं के चलन के कारण कर्ता। अष्टï सिद्धियों के आधार।
9. नवग्रह- धरती व मानव अस्तित्व से महत्वपूर्ण ऊर्जा स्पन्दन सम्पर्क। इन सब ग्रहों की ऊर्जाओं, गतियों और उॢमयों की अनुभूति मानव शरीर-मन-बुद्धि से अनुभव करते रहकर संवेदनशीलता की पूर्णता को अनुभूत करना है।
10. पूर्णांर्क – दसों दिशाओं से प्रकाश व ज्ञान। दस ही कलियुग का अंक है। दस ही मानव शरीर की संरचना की प्रणालियाँ हैं। अपरा व परा ज्ञान के ज्ञान-विज्ञान की पूर्णता-सभी ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं से संदेश निर्देश और शक्ति पाकर दसों दिशाओं में विस्तारित करना ही मानव का परम धर्म है।
अपने और ब्रह्माण्ड के
सम्पूर्ण सष्टि के
दस तक के गणित को जानकर
जीवन को पूर्णता से
पूर्णतया जीवन्त होकर
जीना ही तो सच्चा धर्म-कर्म है

यही सत्य है
यहीं सत्य है
!!

  • प्रणाम मीना ऊँ

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