ज्ञान बघारने के लिए नहीं होता। ज्ञान डींग मारने बताने या पढ़ाने के लिए नहीं होता। ज्ञान जीकर उसमें अनुभव का मोती पिरोकर प्रकाश के प्रसार के लिए होता है प्रचार के लिए नहीं होता। जीकर बताया गया ज्ञान, ज्ञान को जीकर अपने सत्य की कसौटी पर कसकर दूसरों को राह बताने के उद्देश्य से समझाने पर अवश्य ही वह वचन की तरह प्रभावकारी होता है। ज्ञानवान ज्ञानी के अलंकृत शब्द केवल प्रवचन बनकर रह जाते हैं।
- अनुभूत ज्ञान से उच्चरित शब्द गीता की तरह सत्य वचन -प्रभु के वचन होते हैं। सत्य ज्ञान ना बहस का ना व्याख्या का ना वाद-विवाद का किसी का भी विषय है ही नहीं।
- सत्य सदा प्रकट होता है, पूर्ण समर्पण में शरणागत जिज्ञासु के सत्य प्रश्नों के उत्तरों के रूप में। पूरे ध्यान में जाकर, अपने को पूरा खाली कर, उत्तरों की सत्य उर्मियों को आत्मसात कर कर्म करने पर ही सत्यानुभूति होती है।
यही सत्य है - प्रणाम मीना ऊँ