वैदिक प्रथाओं में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभु की दया मांगने की अपेक्षा उसकी दया पाने योग्य बनना होगा। सुपात्र बनना ही होता है। बाद के जितने धर्म आए उनमें इसे, सुयोग्य व सुपात्र बनने के कर्म को इतना महत्व नहीं दिया गया।
धार्मिक स्थलों पर सामूहिक प्रार्थनाओं की या अन्य और किन्हीं बाहरी तरीकों से पाप धोने की विधियां अधिक पनप गईं। कर्मकाण्डों व किताबी ज्ञान का इतना विस्तार कर दिया कि सत्य उस भूल भुल्लैया में खो ही गया। अब वापिस सत्य तक पहुंचने के लिए, इतना विस्तार जो हो गया है उसे तो समेटना ही होगा।
यही हो रहा है मनु नामधारी जीव के माध्यम से। मैं तो बस एक शून्य हूँ खोज में एक पूर्ण की, जिसमें लगकर एक से दस हो पाऊँ। एक ही एक, अब होने हैं दस, फिर वही एक ही रह जाना है।
जय सत्येश्वर !!
- प्रणाम मीना ऊँ