आजकल कई संस्थान सनातन धर्म के सत्य ज्ञान और विज्ञान की रक्षा व विश्वस्तरीय स्थापना का तथाकथित प्रयत्न कर रहे हैं। अच्छी बात है पर यह प्रयत्न करने वाले पहले इस शाश्वत सनातन धर्म के सत्य व वैज्ञानिक नियमों को जानें, समझें और उसी के अनुसार जीएँ तभी तो बात बनेगी। सत्य सनातन धर्म की स्थापना हेतु पूर्णतया सत्य होना ही वो आत्मबल व शक्ति देगा जो इस संकल्प के लिए अपेक्षित है।
पहली बात कि सत्य सनातन धर्म किसी धर्म विशेष, किसी संप्रदाय या प्रचार का मोहताज नहीं। दूसरी बात सनातन सत्यधॢमता तो अपने आप स्वत: ही जब समय आता है तो सनातन सत्य जीने वाले किसी माध्यम के द्वारा उजागर होती है। इसे कोई रोक नहीं सकता, यही तो होता है संभवामि युगे-युगे।
आज धर्म के नाम पर जो असत्य पाखंड ढोंग और अपना-अपना वर्चस्व मनवाने के लिए अखाड़ों मठों पद-पदवियों विशेष वेशभूषाओं अलंक रणों धन-वैभवों उपाधियों आदि का जो प्रदर्शन हो रहा है क्या वो सनातन धर्म में वर्णित या प्रतिपादित है। श्रीकृष्ण की गीता जो सभी वेदों व शास्त्रों का निचोड़ है और स्वत: स्फूर्त उद्बोधन है उसमें जिस सनातन धर्म की पूर्ण व्याख्या है उसमें कहीं भी आज जैसे हो रहे कर्मकाण्डों या महिमामंडित सम्प्रदायों का संदर्भ नहीं है। केवल अपने पर कैसे काम करें, कैसे सही मार्ग चुनें। अपने सच्चे दिव्य सच्चिदानन्द स्वरूप को जानकर कैसे इस संसार में दृष्टिाभाव से और कर्ताभाव रहित होकर सभी विधाओं से सहजता सरलता व निर्लिप्तता से लीला जैसे निकल जाना है। ध्यान और मानव अस्तित्व का विज्ञान बताया गया है यही ज्ञान बताया गया है।
सत्य सनातन धर्म के उदाहरणस्वरूप श्रीराम श्रीकृष्ण श्री अरविन्द श्री महात्मा गांधी और भी कई उन्नत मानवों ने जीकर ‘जो बताया व सिखाया’ वो कौन जी रहा है। केवल प्रचार ही प्रचार वो भी तकनीकों और विशेष रूपरेखाओं से बनाए गए कार्यक्रमों द्वारा। कुंभ जैसी पावन परम्परा में भी अपना-अपना शक्ति प्रदर्शन। कौन गंगा माँ उसकेघाटों या उसके आसपास के वातावरण की सफाई के लिए भागीरथ प्रयत्न करता है। वहाँ केवल मंडपों व अखाड़ों के लिए स्थान घेरना, लाउडस्पीकरों कारों का प्रदूषण, सैकड़ों टन फूलों की सजावट आदि के सामानों आदि का मलबा!
स्वादिष्ट भोजों लंगरों जुलूसों अखाड़ों की सजावट व रखरखाव पर अन्धाधुन्ध खर्चा भक्तों की श्रद्धा के नाम पर। धनी भक्त भी काले धन को पुण्य में बदलने की ताक में रहते हैं। बिचौलियों दलालों चमचों आदि की भरमार। प्रचार के नाम पर मुफ्त का खाना-पीना, गन्दगी फैलाना। ऊपर से कुंभ नहाने का दंभ कि पाप धो लिए, पुण्य कमा लिया, स्वर्ग का टिकट आरक्षित कर लिया… भूल जाते हैं कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’।
सच्चा तीर्थाटन एक मनोरंजन करने वाले मेले व हवाखोरी के पर्यटन में बदल गया है। जब गुरु स्वामी आचार्यगण अपनी स्पर्धा व होड़ ही नहीं छोड़ पा रहे हैं तो औरों को क्या शिक्षा दे रहे हैं? पहले कौन-सा अखाड़ा डुबकी मारे, ऐसी ही बहुत-सी बातें जो न ही सनातन सत्य को परिलक्षित करती हैं न ही गीता में वॢणत सनातन धर्म को प्रेरित करती हैं। क्या दिखा या बता रहे हैं हम अपनी जिज्ञासु प्रबुद्ध भावी पीढ़ी को…
प्रणाम पुण्यमयी पावन नदियों में नियमपूर्वक सही नक्षत्रों में शान्त ध्यानपूर्ण स्नान को शुभ मान पूरा-पूरा सम्मान देता है पर प्रदर्शन होड़ धक्कामुक्की तस्वीरें खींचना विडियो शोरशराबा- ये सब किस तपस्या के अंग हैं। आभापूर्ण प्रभामंडल का विस्तार कहीं नहीं दिखाई देता। सनातन धर्मानुसार प्रकृति ने पाँचों तत्वों को भाव विस्तार का भी माध्यम बनाया है, प्रदूषण विस्तार का नहीं, तो पावन जल में केवल अपने पाप धोने का ध्यान ही क्यों। पाँचों तत्वों को मानव अपने ही मन के अनुरूप प्रयोग करने की अपेक्षा उनको क्या अर्पण कर सकता है। न उसकी शुद्धता व पवित्रता बनाए रखने में क्या-क्या योगदान दे सकता है, यह भी तो जानने व करने योग्य धर्म-कर्म है। सत्कर्म की प्रेरणा लेकर सत्संकल्प में स्थित होकर पूर्ण पुरुषार्थ को कौन
उद्यत होता है।
सच्चे पुरुषार्थ का बीज तो वो ही बो सकता है जो स्वयं मुक्त निर्लिप्त अहम्रहित व कर्ताभाव रहित होकर पुरुषार्थ में निमग्न हो। श्रीराम श्रीकृष्ण से बड़ा कौन उदाहरण होगा सनातन धर्म का। श्रीकृष्ण तो जगद्गुरु हैं। उन्होंने संसार व धर्म-कर्म त्यागने की बात कहाँ बताई। गीता बाँचने वाले बहुत हैं पर जीता कौन है। श्रीकृष्ण ने गीता बताने को क्या पंडाल सजाए। केवल पूर्ण समर्पण में आए एक ही सुपात्र को माध्यम बना लिया। कर्मकाण्डों और ज्योतिष आदि अन्य विषयों का भी अपना-अपना महत्व है जिसको जो रुचे, करे। पर सबसे बड़ा कर्म है:-
‘अपने को जानना अपना सत्य जानना’
ज्योतिष शास्त्र ब्रह्माण्डीय ग्रह-नक्षत्रों का विवरण सब देखाभाला, सुना-गुना ज्ञान है पर उसका पूर्ण विज्ञान जो अदृश्य व अनदेखा है वह तो मानव अस्तित्व में ही समाया है और उसे केवल सनातन सत्य धर्म जीकर ही जाना व समझा जा सकता है। विशेष धर्मों सम्प्रदायों या कर्मकाण्डों को अपनाने से पूर्ण शान्ति और सच्चिदानन्द प्राप्ति हो तो अवश्य करें, प्रणाम नकारता नहीं है पर ये सब व्यक्तिगत रुचियों का प्रश्न है जो सार्वजनिक प्रदर्शन की वस्तु तो कदापि नहीं है।
वास्तविकता तो यह है कि सत्य प्रेम कर्म व पूर्ण- ज्ञान, पूर्ण-भक्ति तथा पूर्ण पुरुषार्थ की सर्वमान्य राह पर चलकर ही मानव पूर्णतया प्रकाशित हो सकता है जिसे किसी धर्म विशेष का लेबल या मुखौटा नहीं चाहिए। हाँ, यह तो पूर्णतया सत्य है कि इसका ज्ञान भारत की पावन भूमि पर ही अवतरित हुआ और पल्लवित हुआ जैसा कि श्रीकृष्ण ने बताया ‘सीधे-सीधे सूर्यदेव – प्राकृतिक परम्परा – द्वारा स्वत: प्राप्त हुआ’ न कि किसी धर्म विशेष की पांडित्यपूर्ण पुरोहिताई से। और भारत के ही आत्ममय सत्यमय प्रेममय प्रकाशमय एकात्मवान कर्मयोगियों ने स्वयं जीकर, जीने का सही मार्ग बताकर, अपना सत्य मानव धर्म निर्वाह कर जीवन सार्थक किया। सत्य जीने वाला ही सत्य बताने का अधिकारी होता है।
सनातन धर्म शाश्वत है, ब्रह्माण्डीय परमबोधि व प्रकृति के अटल नियमों पर आधारित है और उसी से संचालित है, जो कि मानव के अस्तित्व के पूर्ण विकास की नींव है। मानव की क्षमताओं को पूर्णता देने का ज्ञान विज्ञान विधान व योग है। सनातन धर्म सम्पूर्ण सृष्टि का ब्रह्माण्डीय गतियों का वास्तविक वैज्ञानिक सत्य है। जिसे सीमित अहम्युक्त कर्ताभाव में रमे मानवों द्वारा निर्मित, खड़े किए गए, प्रचारित किए गए, मुक्ति का द्वार दिखाने वाले धर्मों द्वारा संपादित नियमों द्वारा चलाया नहीं जा सकता, न ही जाना जा सकता है।
तो हे मानव!
बन एक सत्य मानव, सही मानव जो तेरा ही वास्तविक प्रकृति प्रदत्त स्वरूप है। जिसे तूने अपनी मानसिकता के अनुसार भिन्न-भिन्न नाम दे दिए। भिन्न-भिन्न छवियों, images, और ओढ़े हुए भिन्न-भिन्न व्यक्तित्वों को अपना मान कर पूरी तरह कृत्रिम हो गया। पहले अपने अन्तर में झांक कर सत्य को जान फिर बात कर शाश्वत सनातन सत्य की। और सच्चाई तो यह है कि जब तू स्वयं से सच्चा होकर सच्चाई जान लेगा तो सनातन सत्य धर्म को बचाने के प्रचार की बात ही अजीब लगेगी क्योंकि च्सनातन सत्य धर्म तो सदा था है और रहेगा’। केवल तुझे तन्द्रा से जाग सत्य होना है जो मानवाकृत धर्म जिस क्रम से आए वैसे ही क्रम से अपने-अपने खेल खेलकर ‘गुन खेलकर’ समयानुसार स्वत: ही महत्वहीन हो जाएँगे। सत्य तो यह है कि सनातन सत्यधर्मता शाश्वत नित्य निरन्तर प्रवाहित चैतन्यता व चेतनता ही है जो केवल प्रकृति व समय, काल युगानुसार, द्वारा ही चुने गए व उनकी दी अपनी ही विशेष परीक्षाओं द्वारा तैयार किए गए मानव द्वारा ही पृथ्वी पर अवतरित होती है और जब अर्जुन जैसा ज्ञानी महाबाहो निद्राजयी लक्ष्यजयी धनुर्धारी विषाद द्वन्द्व में फँसा हताश-निराश व आर्त्त होकर पूर्ण समर्पण में आकर सच्चा मार्ग जानने को तत्पर हो तभी उद्घोषित हो गीता रूप में झरती है।
वो गीता जो श्रीकृष्ण को जगद्गुरु के रूप में सदा के लिए स्थापित कर गई। अब उसी गीता पर चलकर उसको ही जीकर जो ज्ञान स्वत: ही अवतरित होगा वही होगा…संभवामि युगे युगे….
तो हे मानव!
छोड़ सारे बाहरी फैलाव
जिसमें सत्य कहीं खो गया है
अब समेटने की बारी है
अपने अन्दर जाने की बेला है
जब तू देव था तो वेद अवतरित हुआ
जब तू शुद्धता से पूर्ण था तभी तो
वेद विज्ञान उतरा धरती पर
तेरे ही माध्यम से
तो अब फिर शुद्ध होने की बारी है
सनातन सत्य धर्म की स्थापना हेेतु …
तू देव था तो वेद हुआ
अब वेद हो जा देव-दिव्यता-अवतरित कर
वेद मानव हो जा
प्राकृतिक सनातन सत्य धर्म धारण कर
उदाहरण बनकर
उसकी वैज्ञानिकता उसका उदाहरण
उसकी उत्कृष्टïता उसकी प्रामाणिकता सिद्ध कर
अपने पर लगा ध्यान
अपने सत्य को जान
वहीं तो है
सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश का अकूत भंडार …
शाश्वत सनातन धर्म का आधार
मान अनन्त का आभार
सदा हुआ यहीं
अवतार …
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ