यही सत्य है कि जो सोचो वही बोलो और करो भी, मनसा-वाचा-कर्मणा पूर्णरूपेण सत्य होओ। इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं कि यह तो करो ही, साथ-साथ कुछ और इसके अतिरिक्त भी बोलते रहो। जब मनसा-वाचा-कर्मणा सत्य हो जाते हैं तो प्रतिपल वाणी से केवल सत्य ही उच्चरित होता है-निर्भीक सत्य। कथा-प्रवचनों को नकारना नहीं है पर सोचो जरा कथा-कहानियों का सत्य कौन जानता है! केवल पढ़ा-सुना ज्ञान मात्र है। पूर्ण सत्य तो केवल जीकर जाना जाता है और जब बोला जाता है तो उसी क्षण का सत्य होता है।
प्रणाम के लिए सत्य वही है जो जीकर जाना जाए। धार्मिक पुस्तकें शास्त्रादि सब ज्ञानमय हैं उनको बखानना कथावाचक या प्रवचनकारी का कर्म है, सत्यात्मा का धर्म नहीं। सत्यात्मा जो बोलती है वह जीवन का तत्व सार होता है, प्रतिपल चैतन्य ध्यान की प्रस्तुति होता है। संभाषण-निरर्थक संभाषण भी असत्य ही है, वाणी विलास है। यदि प्रवचनकारी या कथावाचक हो तो किसी भ्रम में न रहो, अपने को वही जानो-मानो वही तुम्हारा सत्य है ।
उपनिषद कहता है-तुम जो हो, अपने को वही जानो, वैसा ही करो, न उससे कम न ज्यादा। यही है अपने को जान सत्यमय होना। पूर्ण सच्चिदानन्द वाले-सत्यात्मा स्वरूप वाले की ऐसी कोई भी छवि, पद-पदवी विशेषणों से अलंकृत व्यक्तित्व के अनुसार कृत्रिम व्यवहार वाली नहीं होती ।
मानव के आंतरिक आत्मिक उत्थान के अनुरूप ही प्रकृति उसका कर्म व कर्मस्थली का रूप निर्धारित कर देती है और संदेश संकेत व संयोग जुटाती है। पूर्ण सत्यात्मा के मुख से जो कुछ भी प्रेषित होता है वही वेद-शास्त्र व गीता होता है, सुगीता होता है। प्रकृति का गीत होता है। सोचकर बोली गई उक्तियाँ कंठस्थ ज्ञान या अन्दर भरे ज्ञान की पुनरावृत्ति मात्र हैं। आत्मजनित ज्ञान वेद होता है। बुद्धिजनित ज्ञान पुस्तकों का मसाला होता है। बुद्धिजनित ज्ञान केवल विस्तार मात्र है, ज्ञान का प्रदर्शन मात्र है, जो मनोरंजक तो हो सकता है पर अंधकार काटने का सुदर्शन चक्र नहीं।
व्यक्तिगत क्षमताओं या विशेषताओं के अनुसार शब्दों के रेलों व वाक्जालों के झमेलों में ऊर्जा व्यय करने की अपेक्षा यदि ऊर्जा संचित कर शक्ति-स्रोत बना महान उद्ïदेश्यों व लक्ष्यों के लिए प्रयुक्त की जाए तभी परमबोधि की सत्य व्यवस्था के प्रति न्याय क र सकते हैं । अच्छे-अच्छे प्रवचनों, सुसंस्कृत शब्दों का आनन्द ले सब अपने गुणों में ही खेलते व रमते हैं। रूपान्तरण की कितने सोचते हैं। कर्मयोग को कितने प्रेरित होते हैं और यदि प्रेरित भी हुए तो उन्हें सतत् सानिध्य व समयानुसार ज्ञान व मार्गदर्शन कहाँ मिल पाता है। सुनने वाले केवल आशीर्वाद की आकांक्षा में रहते हैं। सुपात्र होने की कठिन तपस्या कितने करते हैं! सब वट वृक्ष की छाया में आरामतलबी से रहकर गुरु गद्दी पर ध्यान रखते हैं।
भैंस के आगे बीन बजाए
भैंस खड़ी पगुराय
सत्यात्मा के शब्द आत्मा को छूकर रूपान्तरण के बीज बोते हैं। प्रकृति की न्याय व्यवस्था के पूरक होते हैं। लोगों को रुचिकर या मनभावन न भी लगे पर आत्मा को उनका सत्य अवश्य स्पन्दित करता है। सत्यात्मा का संवाद आत्मा से आत्मा तक का प्रवाह है जो पूर्णता की ओर ही जाता है पूर्णता में विलय होने को मानव को पूर्णता देने को नए युग के अभ्युदय का कारण बीज बनने हेतु। यही प्रणाम गति है।
यही सत्य है
यहीं सत्य है !!
- प्रणाम मीना ऊँ