कलियुग में पार लगाने के सर्वोत्कृष्ट साधन सत्य प्रेम व कर्म है और सर्वोत्तम साधना है ज्ञान भक्ति और कर्म की। कर्म दोनों में है एक में आन्तरिक धर्म और एक में बाह्य कर्त्तव्य कर्म ।
सत्य निर्भय बनाता है प्रेम निर्मल करता है और कर्म पुरुषार्थ का मार्ग प्रशस्त करता है। सत्य प्रेम व कर्म की पूर्णता से वो ज्ञान जागृत होता है जो समस्त अज्ञान रूपी अंधकार को काटकर उस प्रकाश से प्रकाशित कर देता है जिसमें सच्चिदानन्द स्वरूप का दर्शन हो जाता है।
सत्य प्रेम व कर्म के इस अलौकिक चमत्कार से आत्मसाक्षात्कार तभी संभव है जब शरीर मन व आत्मा में लयात्मकता व एकात्मकता हो । जब तक स्वयं से एकात्म न होगा तब तक बाहर भी एकात्म वाला भाव प्रसारित नहीं हो पाएगा। सत्य की सबसे बड़ी साधना है मनसा वाचा कर्मणा एक होना जो सोचो वही बोलो वही करो । सत्यनिष्ट मानव आत्मा के सभी आवरण भेदने में सक्षम होता है और आत्मरूप में स्थित होकर भी अपने कर्त्तव्य कर्मों को स्वाभाविकता व सरलता से निभाता है।
प्रत्येक जड़ चेतन में आत्मरूप का दर्शन पाकर सभी से एक जैसा प्रेम अनुभव करता है। प्रेम का सच्चा अर्थ है प्रकृति की तरह बिना मोल बिना व्यापारिक मानसिकता के बस देना ही देना और उसमें ही आनन्द पाना। प्रेम यदि व्यथा व मोलतोल दे तो वो प्रेम नहीं मोह है।
पूर्ण निष्काम कर्म ही कर्म बंधनों को काटने का एकमात्र साधन है। प्रत्येक कार्य चाहे वो कितना ही छोटा क्यों न हो उसे अपनी पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से करना व परमशक्ति को अर्पण करना ही पूजा है। तन मन धन से और पूरी कुशलता से किया गया कर्म ही योग है जैसा कि श्रीकृष्ण ने गीता में बताया “योग कर्मसु कौशलतम ”। यही बाह्य कर्म की साधना है।
दैनिक दिनचर्या के साथ-साथ सदा आन्तरिक कर्म का भी ध्यान रखना है यही है ध्यान की सतत साधना। सदा यह ध्यान रहना कि जहाँ भी हो जैसे भी हो परमप्रभु सत्ता को कभी न भूलना। अहम् व कर्ताभाव को सदा तिरोहित करते रहना। इस प्रकार बाह्य कर्म व आन्तरिक कर्म करने से मानव सदा अपार तेजस्वी ऊर्जा से परिपूरित रहता है। यही है ऊर्जा के अनन्य मूल स्रोत की धारा से निरन्तर जुड़े रहने का मूलमंत्र। जो स्वतः ही शरीर के विकारों, मन के दूषित विचारों व आत्मा के भारों को निष्कासित कर सुन्दर स्वस्थ व प्रगतिशील व्यक्तित्व प्रदान करता है।
जो ज्ञान अहम् मिटाकर विवेक न जगा पाए वो केवल व्यर्थ का बोझ है जो अहंकार का कारण बनता है। जैसा कि उपनिषद् में बताया है कि अज्ञानी का दीया तो शायद फिर भी कभी न कभी जल जाए पर उस ज्ञानी का दीया कभी नहीं जल सकता जो अपने ज्ञान में ही रम गया। ज्ञान चाहे शरीर का, मन का या आत्मा का हो उसे जीवन में भरपूर उतार कर उस पर कर्म करना है जीवन दिशा निर्धारित करनी है कर्मभूमि चुननी है उससे आत्मानुभूति पानी है यही है ज्ञान की सेवा न ज्ञान का उद्देश्य । सीखे सांसारी ज्ञान से परा ज्ञान तक पहुँचना है पूर्ण कर्म द्वारा। ज्ञान बघारने के लिए दूसरों पर थोपने के लिए या प्रवचन करने के लिए नहीं है। जिस ज्ञान को जीकर चिन्तन मनन द्वारा मथकर जो मक्खन प्राप्त होता है वही वचन बनता है गीता की तरह।
वास्तविक भक्त में, जब प्रेम के अनन्य रूप व पूर्ण समर्पण का योग, समाहित हो जाता है तो पूर्णान्द की अनुभूति होती है मुक्तात्मा का बोध होता है। भय और कुंठाओं से मुक्तात्मा को दुर्भाग्य व दुर्घटनाएँ सता नहीं सकतीं | मानसिक रूप से भूत-भविष्य से चिन्तामुक्त को विषाद तनाव आदि व्याधियाँ दुखित नहीं कर सकतीं । शारीरिक रूप से दूसरों पर निर्भरता से मुक्ति और प्राकृतिक नियमों, रहन सहन और खानपान की सादगी का ध्यान रखने वालों के लिए
शारीरिक ताप शाप कष्ट का कारण नहीं बनते।
पूर्ण स्वास्थ्य के लिए शरीर मन व आत्मिक ऊर्जा का सन्तुलन बनाना होता है। ऊर्जा का प्रवाह जिन गुणों के प्रसार में लगाया जाएगा वही द्विगुणित हो लौटेगा। यही कर्म चक्र है। यही वैदिक आध्यात्म का सार है। सनातन का अर्थ है- चिरन्तन निर्बाध शाश्वत प्रवाह जो प्रत्येक जड़ चेतन व सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। इसी प्रवाह को सत्य प्रेम व कर्म द्वारा प्रकाश का स्वरूप होकर प्रवाहित रखना मानव का धर्मकर्म है। जिसको रीतिरिवाजों कर्मकांडों भिन्न-भिन्न समुदायों व नामों से न बांधा जा सकता है न बाधित किया जा सकता है।
यह एक प्राकृतिक धर्म है जो प्रकृति के नियमों द्वारा संचालित है और ब्रह्माँडीय सोच-परमबोधि द्वारा निर्देशित है। परमबोधि की एक ही सोच है मानव पूर्णता की ओर अग्रसर हो पूर्ण होकर ही पूर्ण में विलय हो । अपने तन मन व आत्मिक अस्तित्व को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् बनाए। यह तभी सम्भव है जब वो अपने सत्य को जान प्राकृतिक नियमानुसार चले और अपना चिकित्सक स्वयं बने।
प्रकृति हमें सब कुछ देने में सक्षम है आवश्यकता है तो केवल उस सत्य ज्ञान की जो हमें प्रकृति के समर्पण में जाकर उससे प्रेम योग द्वारा जोड़ दे, सच्चा योग करा दे। जिससे प्रकृति के गुणों का समावेश मानव प्रकृति में हो जाए प्रकृति ने हमें शुद्धतम पाँच तत्वों का पुतला बनाया और यही पाँचों तत्व अपने अन्त समय में मानव शुद्ध रूप में प्रकृति में विलय कर सके इसी में मानव जीवन की सार्थकता है, प्रकृति की सबसे बड़ी पूजा है सबसे महान अर्पण तर्पण है।
दास कबीर जतन से ओढ़ी
ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया