सत्य ज्ञान का दर्शन प्रणाम का चक्र सुदर्शन

सत्य ज्ञान का दर्शन प्रणाम का चक्र सुदर्शन

बहुत कुछ कहा संकेतों में, कविताओं में और भाषा की आँखमिचौनी में। पूरा प्रयत्न किया कि नींद से जागे मानव, अर्जुन बने सत्यधर्म जाने अपना मार्ग प्रशस्त करे। समय का संदेश सुना पाऊँ ताकि प्रकृति ने जो अग्नि-परीक्षा संजो रखी है, नियत कर रखी है, आयोजित की हुई है, असत्यता व अपूर्णता के लिए, उसकी भयावहता से, त्रासदी से, असत्य में जी रहे मानव के लिए कुछ राहत का सामान कर सकूँ जैसे आक्रमण वाला पहले पुकार लगाता है कि अपने बचाव की तैयारी कर लो ऐसे ही प्रकृति भी शिवरूपिणी हो तांडव दिखाने लगती है। संकेतात्मक भाषा में बहुत पहले ही संदेश देने लगती है। कुछ मानवों को प्रकृति तैयार भी कर लेती है वह संदेश देकर आगाह करने के लिए।

प्रणाम एक ऐसा ही, प्रकृति और उसके कालचक्र के नियम से निरंतर जुड़ा माध्यम है। जो यह सत्य जानता है कि असत्य और अपूर्णता का बढ़ना ही, पूर्णता और सत्य के आसपास ही होने का संकेत है। जब जब अर्जुन जैसे जीवट, जिज्ञासु, कर्मयोगी और विवेकपूर्ण मानव तैयार हो जाते हैं तो फिर कृष्ण भी आसपास ही होते हैं। दूर कहाँ हैं कृष्ण, जब अर्जुन जैसा प्रश्नकर्ता दोराहे पर खड़ा हो। हाँ ज्ञान की दिव्य दृष्टि चाहिए उनका विराट रूप देखने को, पूर्ण समर्पण चाहिए समझकर कर्म करने की शक्ति पाने को, समय की उत्पत्ति कृष्ण तो हर तत्पर अर्जुन के सारथी बनने को तैयार रहते हैं। प्रणाम ने बार-बार दोहराया है कि अब सबको अग्नि-परीक्षा से गुज़रना ही होगा। आंतरिक अग्नि और बाह्य अग्नि। बाह्य अग्नि में भूचाल, युद्ध, दुर्घटनाएँ, बम, आग इत्यादि और आंतरिक अग्नि में ऐसी बीमारियाँ जिन्हें विज्ञान पकड़ नहीं पाएगा और साइंस को इलाज नहीं समझ आयेगा। यह संदेश 1999 की 29 तारीख गुरुवार, गुरुपूर्णिमा के दिन प्रणाम द्वारा सबको सूचित किया गया। उसका निवारण भी बताया पर नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह असत्य के शोरगुल वाले विशाल सागर में सत्य की बांसुरी की आवाज़ गुम हो ही जानी थी। मगर कुछ संवेदनशील खिंचे भी आते हैं वही संबल बन जाते हैं। सत्य का विश्वास दृढ़ करते हैं। एक निश्चय वाली बुद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

कैसी विडंबना है झूठ, झूठ से झट एकाकार हो एक निश्चय वाली (वन प्वाइंट प्रोग्राम) बुद्धि रख अपने दुष्ट कर्मों को सरअंजाम दे देता है। मगर सत्य सत्य से हाथ मिलाने को राजी नहीं हो पाता। झूठ-झूठ से कहता है तूने चाहे एक खून किया मैंने दस खून किए मगर दोनों ही बराबर हैं एक ही खूनी बिरादरी के हैं। मगर सत्य को मानने वाले कहते हैं तूने तो एक ही वेद पढ़ा है मैंने चार पढ़े हैं तुझे तो एक ही भाषा आती है मुझे छह भाषाएं आती हैं। बस अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग। सच्चिदानंद सत् चित् आनन्द का दर्शन ही पूर्ण नहीं है। पर प्रकृति न रुकी है न रुकेगी। अब समय आ गया है झूठ ही झूठ को मारेगा। जो सत्य अपनाएँगे, दिव्यता के गुणों की शरण में जाएँगे वही सत्य की राह पर नि:शंक चलेंगे और सतयुग का मार्ग प्रशस्त करेंगे। सत्य जीतेगा ही क्योंकि कलियुग के बाद सतयुग ही आता है। जो सबसे पहला वेद धर्म पृथ्वी पर आया उसी की ओर लौटना है। अब बीच में मानव उत्थान की राह में जो धर्म बने वो समय की मांग थे पर जिन्हें मानव की स्वार्थी बुद्धि ने तोड़-मरोड़ दिया अहम की अहंकार की मिलावट कर ली।

अब सारी मिलावट वाली चीजों को चाहे वे धार्मिक हों, सामाजिक हों, राजनीतिक हों या व्यक्तिगत सबको अग्नि-परीक्षा से गुजरना ही होगा। सत्य की अदालत के कटघरे में खड़ा होना ही होगा। असत्य और अपूर्णता की नियति है नष्ट होना, समाप्त होना आज नहीं तो कल। यही सत्य अविनाशी है। सत्य का विनाश नहीं होता। निरंकार सिंह का लेख, कल्कि ही दुनिया का उद्धार करेंगे। तलवार का आशय ज्ञान की तलवार और घोड़े का अर्थ सब दिशाओं का प्रतीक है। और महाविनाश (अग्नि-परीक्षा) के बाद वसुधैव कुटुम्बकम, जो प्रणाम का नारा है, की भावना व्याप्त होगी। यह अवतार मनुष्य रूप में होगा या संस्था या संगठन या विचारधारा के रूप में पर कोई न कोई इसका कारण बनेगा ही। यह सत्य ही है। पिछले लेख में जो प्रतीकों के गुण कहे वही तो प्रणाम का आधार हैं यही आज के कलियुग का सत्य है, संकेत है, संदेश है, आह्वान है। सत्य, प्रेम व कर्म को पूर्णता की ओर ले जाना ही धर्म है। अपूर्णता व असत्य को नकार कर उसकी शक्ति कम करना ही कर्त्तव्य है। असत्य का भागीदार बन उससे कमज़ोर नहीं बनना है। सत्य की आवाज़ बुलंद करना है। पूरी शारीरिक व मानसिक शक्तियों से प्रत्येक क्षण को पूर्ण बनाकर सत्यम् शिवम् सुंदरम् चरितार्थ करना है। मनसा-वाचा-कर्मणा सत्य होना ही होगा।
यही प्रणाम का सुदर्शन चक्र है
गीता संदेश है गीत गोविंद है

ज्ञान की तलवार से अज्ञान का अंधकार मिटाने का संकल्प है
जो बुद्धि से नहीं लिया, समय ने स्वयं दिया
शान्ताकारम् भुजग शयनं पद्मनाभं सुरेशं,
विश्वाधारम् गगन सदृशं मेघवर्णं शुभांगम्॥
लक्ष्मीकांतम् कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वंदे विष्णु भवभयहरम् सर्वलोकैकनाथम्॥


सबको प्रणाम सद्बुद्धि का साथ हो। स्वाभिमान की बात हो। मानव जीवन की शान हो। हमारा न कुछ मान हो। परम प्रकाश का ही प्राण हो सर्वत्र प्रणाम ही प्रणाम हो। यही सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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