श्री विष्णु अवतार की विडंबना-1

श्री विष्णु अवतार की विडंबना-1

हे मानव!
जरा सोच तो तू कितनी मौज की स्थिति में है। सब गुण खेलता है। हँसता, रोता, लड़ता, झगड़ता और अपने मन की करता ही रहता है। कुछ गड़बड़ हो जाए तो ऊपर वाले को दोष देने से भी नहीं चूकता। पर श्री हरि जो अवतार रूप में मानव होकर धरती पर सारी मानवता को राह दिखाने आते हैं क्या होती है उनकी नियति। विष्णु की यह विडंबना जाने मनु तभी तो कहा है:-
क्यों आते हो बार-बार शापित होने
जबकि शाप देने की कला तो तुमको आती ही नहीं
फिर तुम कहाँ के सर्वकला सम्पूर्ण ओ जगदीश्वर
वरदान देना मुँह से तुमने जाना ही नहीं
तभी तो तुम्हारे अस्तित्व, अहम् की पूर्णता को
किसी ने माना ही नहीं
दूसरे देते रहते वरदान बोल-बोलकर
तुम करते रहते कर्म अन्दर तौल-तौलकर
ब्रह्मा से भोले भंडारी शिव तक
ऋषि मुनि तपस्वी देते रहें श्राप औ’ वरदान
अपनी अपनी सिद्धियों के भान में
महाज्ञानी होने के अभिमान में
और तुम करते रहो तपस्या बनने की
करुणानिधान भक्तवत्सल महान
बार-बार आकर धरती के मैदान में
रखते हो सदा मान ब्रह्मा, शिव के वरदानों का
करते हो सदा ध्यान पूर्णता के विधानों का
श्रापों को बनाकर सहारा, वरदानों का पकड़ किनारा
कर्म भुगतवाने का ढूंँढ़ो बहाना,
श्रापों वरदानों दोनों को ही सजाना
बने हुए प्रकृति की अनंत व्यवस्था के
भागीदार, सूत्रधार, कर्णधार
किसी के श्रापों के, किसी के वरदानों के
तुम कहाँ हो हिस्सेदार
पर फिर भी तुम्हीं क्यों ढोते हो सलीब
देते हो परीक्षाएँ अजीब-अजीब
क्यों बिछुड़ते हो कभी सीता से, कभी राधा से
कभी यशोधरा से, पीते हो मीरा के समर्पण का जहर
अपने को अपने ही मापदंडों पर
तौलते-तौलते तुम न ही थके न ही रुके
तभी तो सहजता से कह देते हो संभवामि युगे-युगे।

यही सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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