वेद के सत्य व विज्ञान के तथ्य का योग

वेद के सत्य व विज्ञान के तथ्य का योग

हे मानव !
ध्यान की साधना द्वारा अपने को उस स्थिति तक लाना है जहाँ सम्पूर्ण सृष्टि की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने वाली परम चेतना से जुड़कर सारी शंकाओं और दुविधाओं से उबरकर अपना सही अस्तित्व जानना व समझना ही होगा वरना यह प्रश्न कि हम क्यों दु:ख तथा कष्ट पाते हैं, सदा ही हमारे मन को व्यथित करके, हमारे उत्थान को कुंठित करता रहेगा। मानव के कष्टों का निवारण कभी भी एक ही निवारक पद्धति पर पूरी तरह निर्भर होकर नहीं हो सकता।

अब वेद व विज्ञान का योग अवश्यम्भावी है। वेद मानव की संरचना का अटल सत्य है। विज्ञान तथ्यों को स्वीकार्य बनाने का निरंतर प्रयास है। वेद रचना के समय मानव जैसा भी था अपने सत्य रूप में था। प्रकृति से जुड़ा होने के कारण प्राकृतिक व आनन्दमय निरोग जीवन जीता था। उसकी अंतरात्मा की आवाज़ प्रतिध्वनित आकाशवाणी थी। उसका शरीर यंत्र सुचारु रूप से ऊर्जा का उपार्जन व हानिकारक पदार्थों का विसर्जन स्वाभाविक रूप से करता था। धीरे-धीरे मानव ने स्वाद चख लिया। भोग तथा इन्द्रिय तृप्ति के लिए स्वार्थपूर्ण ढंग से काम करना शुरू कर दिया। फिर उसे बुद्धि की शक्ति का अहसास हुआ, उसका आनन्द लेने लगा। अपनी मानसिक शक्ति से विज्ञान की उत्पत्ति भी कर ली ताकि हानिकारक तत्वों से छुटकारा पाकर भोग भोगने के लिए अपने को स्वस्थ रख पाए।

शुरू में तो प्राकृतिक उपायों से आयुर्वेद के रूप में प्रयोग हुआ बाद में रसायनों में बदल गया। प्रकृति के नियमों के उल्लंघन से व्याधियाँ बढ़ीं। जितनी तीव्रता से बढ़ीं उतने ही तेज रसायनों की आवश्यकता हुई। रसायनों के लिए द्रव्य की, स्वास्थ्य के लिए धन तथा आवश्यकता पूर्ति की दौड़ व होड़ शुरू हो गई। विज्ञानयुक्त मस्तिष्क व वेदयुक्त प्रकृति में निरंतर स्पर्धा हो गई जैसे ही मस्तिष्क विज्ञान के बल पर परिवर्तन समझने योग्य होकर स्थिति पर नियंत्रण पाता है, प्रकृति आगे बढ़ गई होती है। जब तक दोनों को भिन्न माना जाएगा अशान्ति व दु:ख रहेगा ही। शरीर में मन व चेतना दोनों हैं। मानव मन की प्रकृति व प्रवृत्ति के सत्य को स्वीकारना ही होगा। मन व चेतना को प्रकाशित कर परा व अपरा ज्ञान को साथ लेकर ही चलना होगा।

मानव तथा प्रकृति अभिन्न हैं। आज मानव का उत्थान उस ऊँचाई की अवस्था को पहुँच गया है जहाँ चेतना अपूर्णता व असत्य को जड़मूल से उखाड़ फेंकना चाहती है और विज्ञान अभी भी अपूर्णता के लक्षणों से ही जूझ रहा है। शरीर को विभागों में बांटकर विशेषज्ञ बनकर देख रहा है। जबकि वेदमयी चेतना शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा के सत्य रूप की ज्ञाता है। सब कुछ सम्पूर्णता से देखती सुनती गुनती है और मानव का कल्याण व उत्थान ही चाहती है। अज्ञान का अंधकार तब तक नहीं मिटेगा जब तक वेद की सत्यमय आचार-विचार संहिता व मानवकृत कथ्य-तथ्य विज्ञान का योग नहीं हो जाता। विज्ञान धर्म बिना अधूरा है, धर्म विज्ञान बिना अपूर्ण है।

  • प्रणाम मीना ऊँ

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