विश्व अनन्तरूपम

शरीर यहाँ धरती पर छोड़ वही सम्पूर्ण सृष्टि में विचरण कर सकता है जिसने इस शरीर-मन-बुद्धि के सभी सम्पूर्ण गुणों को पुराने कपड़ों की तरह उतार फेंका हो।
शरीर भाव से एकदम निर्लिप्त, विहीन सभी संवेदनाओं, भावनाओं से परे ही परे हो गया हो वो ही परे जा सकता है।

शव होकर तो सभी परे जा पाते हैं पर अंतर ये है कि परे जाकर फिर इस शरीर में लौट नहीं पाते। पर सत्य समाधिस्थ मानव यह शरीर यहाँ धरा पर रख सम्पूर्ण सृष्टि, ब्रह्माण्ड व लोकों में विचरण कर फिर इसी शरीर में लौट आता है। शरीर छोड़कर विचरण की विद्या तो कई सिद्ध कर लेते हैं और खूब प्रयोग भी करते हैं। उस अनन्त ब्रह्माण्ड की उड़ान, The Flight of endless Universe, किस किस विस्तार में और कहाँ तक होगी या हो पाएगी, यह इस पर निर्भर है कि जब आत्मा इस शरीर में थी तो मानव का कितना उत्थान हुआ।

अनन्त की यात्रा में दूरियाँ मानव के आन्तरिक उत्थान पर निर्भर होती हैं। जिसने सहस्रार पार कर लिया वो सृष्टि की, ब्रह्माण्ड की भी हजारों कलाएँ, विष्णु सहस्रनाम गुण पूर्णता की विधाएँ, पार कर अनन्त विचरण कर पाता है। सहस्रार से नीचे के चक्रों पर रहने वाले चक्रों के अनुसार ही ब्रह्माण्डीय लोकों का दर्शन कर पाते हैं।
मुझे इस शरीर में बार-बार ब्रह्माण्ड भ्रमण के बाद आना होता है। मैंने क्या आना-जाना है, प्रभु ही भेज देते हैं ताकि ज्ञान का, भक्ति का, प्रकाश का ईंधन, ऊर्जा उष्मा, लाकर इस शरीर-मन-बुद्धि में समाकर, जीकर फिर अगली उड़ान की विस्तार की तैयारी हो जाए। मन में एक ही भाव रहता है कृतज्ञता का। पूरा का पूरा अस्तित्व दृष्टा हो जाता है अनन्त ब्रह्माण्ड विचरण के समय भी और बाद में भी। बस एक ही भाव चैतन्य रहता है, चेतना जान रही होती है- इस नश्वर शरीर का प्रयोग, उपयोग ज्ञान-विज्ञान तृप्त, सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण परम-आत्मा कर रही है परमबोधि से संचालित सम्पूर्ण व्यवस्था का एक अंग जो उत्थान की महत्वपूर्ण कड़ी बन जाता है परमकृपा से, जो कि युग की मांग होता है और अब युग की मांग यही है।
संभवामि युगे युगे।
कोटि-कोटि प्रणाम प्रभु !
पूर्ण कृतार्थ हुई ईश्वर !
पूर्ण कृतज्ञता, नम्रता और धन्यवाद में
नतमस्तक है मीना मनु।
अवतार की कड़ी !
कल्कि अवतार की शक्ति !!

  • प्रणाम मीना ऊँ

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