हे मानव!
मानव यंत्र का सत्य जान। मानव चाहे जैसे भी गुणों में रमता हो प्रभु ने उसे एक ऐसी शक्ति दी है जिससे आठों प्रहर में एक बार अवश्य ही उसकी जिह्वा पर माँ सरस्वती उतरती है और जो भी उस समय कहा जाए वह सत्य होता है। इस पल का ज्ञान मानव बुद्धि को नहीं होता पर इसका अनुभव जीवन में सबको होता है कि कभी यूँ ही कही बात सच हो गई। इसे पूर्व सूचना या इंट्यूशन कह देते हैं। पर इस प्रक्रिया का विज्ञान क्या है और कैसे उसे इतना विकसित किया जा सकता है जहाँ वह वचन की तरह सुनिश्चित हो जाए। यह साधना व उद्यम कोई विरला युगदृष्टा ही कर सकता है। पर यह होता अवश्य है-यही प्रकृति का नियम है। जब मानव अपनी सोच, वाणी व कर्म में तारतम्य बना लेता है तो स्वत: ही इस रहस्य की परतें खुलने लग जाती हैं। बोले गए शब्द के पीछे आज्ञा, राग-द्वेष, अनुशंसा, सीख- शिकायत, चाटुकारी आदि कोई भी भाव न हो अहम् या कर्त्ताभाव का पुट न हो बस एक हितम् वदं, प्रियम् वदं, सत्यम् वदं का ही भाव हो। सत्य कहा जा रहा है पर जबरन कुछ थोपा नहीं जा रहा इसमें बहस की सम्भावना नहीं रहती। वाद-विवाद तो किसी बात को मनवाने के प्रयास के लिए वाक्युद्ध या वाणी विलास ही है।
प्रवचन है पर-वचन, दूसरों के वचनों की सत्यता स्थापित करने के लिए उनकी महत्ता बखानने को शब्दों का झरना बहाना। उसके साथ अपनी बात का महत्व समझाने का भी भाव होता है। इसके लिए कथाओं और उदाहरणों का सहारा लिया जाता है। सत्य वचन का आख्यान प्रवचन के व्याख्यान में बदल जाता है।
वचन एक स्टेटमेंट-कथन है आत्मा से आत्मा का संवाद है, इसमें सटीकता है। वचन एक से एक की बात है प्रवचन एक से हजारों की। गीता का वचन सीधे-सीधे अर्जुन को संबोधित था। करोड़ों की भीड़ व अक्षौहिणी सेना के मध्य केवल अर्जुन ने ही सुना और एक-एक शब्द श्लोक व मंत्र हुआ। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने समय व काल धर्म के अनुसार अर्जुन को माध्यम बना कर जो वचन कहे वही तो गीता हुए। वेदयुक्त जीवन जीने वाले मानव के मुख से वचन वेद बनकर ही उच्चरित होते हैं। सत्य की शक्ति वाले वचनों से ही गीता बनती है और प्रवचनों से केवल पुस्तकें।
वचन वाणी की आत्मा है और प्रवचन वाणी का गहना। सत्य भाव में प्रेम पगे शब्द, चाहे भाषा व्याकरण से शुद्ध न हों, परंतु प्रिय वचन तो होते ही हैं। प्रवचन में भाषा, शैली, प्रस्तुति, स्थान, सबका प्रयत्न से संयोजन होता है। वचन प्राकृतिक रूप से प्रकृति का सौंदर्य तथा सत्य लिए मुख से प्रवाहित होते हैं।
श्रीकृष्ण गीता याद करके या कोई विषयवस्तु की रूपरेखा बनाकर रणक्षेत्र में नहीं गए थे। जो जीया भोगा, मानव जीवन के रहस्य का ज्ञान संचित किया वही तो कहा-
वेद बोलूँ, वेद लिखूँ वेद ही सुनूँ
वेद में रम कर वेद ही जीऊँ
वेद ही धरा की संस्कृति बने
वाणी का सदुपयोग हो
कम से कम शब्दों में सत्य की बात हो।
गागर में सागर की सौगात हो
सत्य, प्रेम व कर्म का
समर्पण की भक्ति का मानवता के धर्म का और
पूर्णता के ज्ञान का प्रकाश हो।
यही सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ