रामसेतु- विहंगम दृष्टिकोण : भाग-2

”प्रकृति के नित्य निरन्तर सर्वव्यापक
नियमों के सत्य पर आधारित”
हे मानव !

प्राकृतिक अनुकम्पा व सम्पदा से खिलवाड़ बन्द कर। मानव धर्म है प्राकृतिक सम्पदाओं को संवारना निखारना और सौन्दर्यमय बना कर मानव कल्याण के लिए उपयोगी बनाना न कि अपने क्षणिक स्वार्थी आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उजाड़ना। प्रणाम मीना ऊँ मानसपुत्री प्रकृति की, गत कई वर्षों से चेता रही है। जाग ओ मानव! प्रकृति से तारतम्य व संतुलन बना। उसके उत्थान कार्य में सहायक हो अन्यथा मानव अपने विनाश का कारण स्वयं ही होगा।

रामसेतु विवाद धार्मिक व्यापारिक या राजनैतिक इतना नहीं है जितना प्रकृति को नियंत्रित कर अपने-अपने निजी स्वार्थों और अहमों की तुष्टि का है। मानव की तर्क पोषित बुद्धि सदा ही अपने कर्मों के पक्ष विपक्ष में अनेकों व्यक्तव्य प्रस्तुत कर ही देती है जबकि सत्य बहस का मोहताज नहीं। हे मानव सीधी सी बात तेरी समझ में क्यों नहीं आती कि भारतभूमि में ही वो संस्कार विद्यमान है जिनसे प्रकृति के अनुरूप जीवन शैली तीज त्योहार व्यवहार व सांस्कृतिक वातावरण प्रस्फुटित व विकसित हुआ।

धीरे-धीरे काफी कुछ विलुप्त हो चुका है अब तो बस करो। एक ओर वैश्विक ऊष्मीकरण, Global Warming, पर्यावरण व संस्कृति बचाने के लिए अनेकों संस्थाएँ और लाखों रुपये व्यय कर सैकड़ों सेमीनार गोष्ठियाँ आदि चलाए जाते हैं। दूसरी ओर पहले से ही जो काम प्रकृति के नियमों के विरुद्ध हुए हैं उनसे निबटने के कोई उपाय नहीं किए जाते।

भारत भूमि सौभाग्यशाली धरती है जिसे प्रकृति ने स्वत: ही सुरक्षा चक्र प्रदान किया है। उत्तर में हिमालय की नैसर्गिक अभेद्य दीवार और तीनों ओर अथाह जल राशि। आज आर्थिक प्रगति के नाम पर हिमालय को खोखला कर डाला। सारे समुद्रीय तट अवांछित तत्वों मादक द्रव्यों और तस्करी आदि के माध्यम बन गए गन्दगी और प्रदूषण के ढेर बने हुए। बेंत द्वारका का समुद्र तैलीय पदार्थों से चीकट हो चुका है। प्रकृति से जुड़े हमारे ऋषि वैज्ञानिकों ने तटीय सुरक्षा का विधान पुरी में सौंदर्ययुक्त कोणार्क सूर्यमंदिर में बृहदाकार चुम्बकीय स्तम्भ लगा कर किया जिससे बाह्य सामुद्रिक पोत खिंचकर ठहर जाते थे। यह तो एक उदाहरण है अनेकों ऐसी सुदृढ़ सुरक्षा व्यवस्थाएँया तो लुप्त हो गईं या नष्ट कर दी गईं।

त्रुटिपूर्ण नीतियों व जीवन की होड़ ने पूरे आर्यावर्त का क्या हाल कर दिया है। बर्मा नेपाल भूटान अफगानिस्तान पाकिस्तान आदि सब कटते गए क्या नक्शा हो गया भारत का अब जो नीचे का प्रायद्वीप सा तिकोना भाग बचा है उसे भी उजाड़ने का उद्यम किया जा रहा है।

सेतुबंध सदियों पुरानी संरचना है चाहे मानवाकृत या प्राकृतिक जिसके कारण सामुद्रिक प्रचंडता से पूर्वीय तटों की सुरक्षा होती रही है। जहाज मार्ग बनाने से प्राकृतिक व्यवस्था में बाधा के साथ-साथ प्रदूषण भी बढ़ेगा। रामेश्वरम पतले लम्बे शंख के आकार का धाम भी इसका शिकार हो लुप्त हो सकता है। हमारे मनीषी चिन्तकों ने कुछ सोचकर ही चारों धामों का स्थान सुनिश्चित किया था और अब सबको ही पर्यटन व अर्थव्यवस्था सुधार के नाम पर प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट कर बाजार बना दिया गया है।

दुनिया में कितने ही ऐसे छोटे-छोटे देश हैं जिन्होंने सामुद्रिक सुनामी आदि आपदाओं से बचने के लिए बृहद बांध व दीवारें बनाई हैं और हम बनाना तो दूर जो प्रकृति ने थोड़ा बहुत सेतुबंध दिया उसे भी उजाड़ने की सोच में हैं। रही थोरियम की बात तो क्या भारत में योग्य व उत्साही युवा वैज्ञानिकों व इंजीनियरों का अभाव है जो विदेशियों को ठेके देकर खाया और खिलाया जाए। भारत के प्राकृतिक ऊर्जा भंडारों पर केवल भारत का ही एकाधिकार है चाहे प्रयुक्तिकरण में समय लग जाए। आज जिन योजनाओं के सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं सालों बाद इनका क्या हाल होगा…

क्या हुआ अरब देशों के तेलों, अफगानिस्तान के मेवों और भारत के हीरे पन्ने व सोने के भंडारों का- और भी अनेकों सम्पदाओं के उदाहरण हैं- कैसे कैसे विदेशी शक्तियों ने इनसे आकर्षित हो क्या-क्या युक्तियाँ और दुर्गतियाँ कीं। नई योजनाओं की अपेक्षा पहले से चल रही योजनाओं को सुव्यवस्थित कर लाभान्वित होना है इन कि आम भारतीयों से टैक्स निचोड़-निचोड़ कर महंगाई बढ़ा-बढ़ा कर सामान्य जीवन दूभर बना देना है।

भावनात्मक रूप से भी यदि श्रीराम या भारतीय संस्कृति से किसी स्थल का नाम जुड़ा है तो कुछ तो कारण होगा। कल को यदि कोई भगवान होने का प्रमाण नहीं है, यह कहकर कुटिल बुद्धि से ही संचालित होने लगे तो इन शान्ति प्रतिष्ठानों, Peace Foundations, मानव हकों, Human Rights, विश्व धर्म, World Religion, जैसी अनेकों संस्थाओं व गोष्ठियों की नौटंकि यों का क्या औचित्य।

मानव की तार्किक बुद्धि कब तक अपनी प्रत्येक प्रकृति विरोधी क्रियाओं को उचित ठहराती रहेगी। पहाड़ों पर कटाई ढलाई सूखी नाले सी गन्दी नदियों पर पुल, धरती का सीना चीर-चीर कर छलनी कर दिया सारा कार्यक्रम ही प्रकृति व मानव समाज का ढांचा चरमराने का हो गया है।

हे भारत के स्वार्थी कर्णधारों! वेद भारत देवभूमि है राम शब्द यहीं गूंजा और जनमानस में समाहित हुआ। आज विज्ञान भी ऊर्जा तरंगों का महत्व जान गया है। राम नाम शब्द की उत्कृष्ट उर्मियों Sublime vibration, की शक्तियों को स्वतंत्र भारत के जनक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी जाना माना और जीया। इस सर्वव्यापी राम नाम की तरंगों को शुचिता पवित्रता से छेड़छाड़ भारी पड़ेगी क्योंकि यह प्रकृति के ऊँ स्पन्दन का ही अंश है।

अनुपम समृद्ध भारतीय परम्परा पर कुठाराघात करने वालों व स्वार्थग्रसित पाश्चात्य मानसिकता वाली नौकरशाही प्रवृति वालों से भारतीय संस्कृति की उत्कृष्टता स्थापना की क्या आशा की जा सकती है। सत्य तो यह है कि अब समय नहीं रहा कि समस्याओं को छोटी-छोटी इकाईयों में देखा जाए। अब प्रत्येक वस्तुस्थिति व विधा को सम्पूर्णता से देखना होगा समय की पुकार व प्रकृति के नियमों पर तौल कर मानव कल्याण की ओर मुड़ना होगा।

प्रकृति की न्याय व्यवस्था सम्पूर्ण निष्पक्ष व सटीक है। प्रकृति ने अपनी सर्वोत्तम कृति मानव के लिए सरलता सादगी प्रेम सौन्दर्य सन्तुष्टि शान्ति और आनन्द से जीवन जीने के लिए कर्म व कर्मस्थली निश्चित कर रखी है ताकि वो प्रकृति के सानिध्य में उर्ध्वगति को प्राप्त हो। इसी कारण प्रकृति के ऋत धर्म द्वारा पोषित पल्लवित भारत भूमि में अनेकों हस्तकलाओं व छोटे-छोटे उद्योगों की संस्कृति उत्कृष्टता को प्राप्त हुई।

इन तथाकथित आंकड़ों वाली योजनाओं ने इन सभी उच्च कोटि की लोक कलाओं की कितनी हानि की है सब जानते हैं सारी योजनाएँराजनेताओं और उनके पिछलग्गुओं की धन लोलुपता का शिकार होती हैं क्या भला हुआ जन मानस का। मूलत: भारतवासियों की सहनशीलता शान्त प्रवृति व प्रकृति अब जवाब दे रही है। प्रकृति की गोद में जीवनयापन करने वालों, भारतीय लोककलाओं गीत संगीत कथा कहानियों की सांस्कृतिक परम्पराओं को जीवित रखने वालों की नस्लों पर वार अब प्रकृति माफ न करेगी।

सीमित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्रकृति की सम्पूर्ण चिरन्तन निरन्तर गतिमान व्यवस्था को ताक पर रखने का समय अब गया। अब तो प्रकृति ने ठान लिया है प्रत्येक असत्य व अपूर्णता को जड़मूल से नष्ट करने का। प्रकृति सबकी अम्मा है धरा का प्राकृतिक सौन्दर्य व सन्तुलन नष्ट भ्रष्ट करने वालों को अवश्य सबक सिखाकर ही रहेगी। प्रणाम प्रकृति के इसी भाव साम्राज्य की चेतना से जुड़कर कर्मरत है क्योंकि अन्तत: बुद्धि की सारी जोड़-तोड़ भूल उसी की शरण में जाना ही होता है।
सत्यमेव जयते
यही सत्य है
यहीं सत्य हैे
!!

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