प्राचीन भारतीय धरोहर रामसेतु की रक्षा हेतु आत्मबली नेतृत्व चाहिए न कि राजनीतिकरण, केवल प्रचार से ही काम नहीं बनता। दृढ़निश्चय शक्ति व कर्मठता चाहिए। सत्यता, कर्म और प्रेम की शक्तिस्रोत है व सत्यज्ञान-प्रकाश का निरन्तर निर्झर है। इन चारों -सत्य कर्म प्रेम प्रकाश में से जो एक मार्ग में भी पूर्णतया स्थित होता है उसकी ओर प्रकृति अपनी न्याय व्यवस्था स्थापित करने के लिए शक्ति प्रवाहित करती है।
जो अपना आराम व राजभवनों जैसा रहन-सहन त्याग और अपने अहम् कर्ताभाव व स्वार्थ को तिरोहित कर सत्य संकल्प के लिए साधारण मानव की भांति जी-जान से जुट जाएगा वही प्रकृति का चुना हुआ प्रतिनिधि होता है।
कौन है जो अपनी गद्दी पदवी दण्डी मंडी छोड़ चल दे पैदल बापू की तरह कि बस अब करना या मरना है। कुछ करने को कहो तो समय ही कहाँ है, पूजा का समय है या भोजन की व्यवस्था होनी चाहिए या शिष्यों का जमावड़ा चाहिए जो शिक्षा प्रवचन उपदेश सुने सेवा करे। ऊर्जावान उत्साही व कुछ कर दिखाने वाले बुद्धिमानों को तो झुनझुना पकड़ा दिया जाता है कि बजाते रहो लगे रहो बेकार के फैलावों में। मानसिक शक्ति चारों ओर व्याप्त है पर आत्मबल तो कहीं नहीं।
इस समय भारत के युवा को उदाहरण चाहिए। जो उसने अपने बड़ों से सुना व पढ़ा उसका प्रत्यक्ष प्रमाण चाहिए न कि उत्साही व कुछ करने की अदम्य इच्छाशक्ति वालों को बुद्धि जनित कार्यक्रमों में अपनी वाक्पटुता से सहमत कर इधर-उधर घुमा देना। ऊर्जा शक्ति व समय का सही दिशा में उपयोग नहीं बताना बल्कि खोखली प्रतिस्पर्धा, व्यावसायिक कूटनीति और स्वहितों की सिद्धि में कैसे समय बिता देना है, यहीं भरमा देना।
अरे, अगर उद्देश्य महान हो सत्य हो तो पहले तैयारी भी सत्य और महान करनी होती है, प्रचार तो बाद में आता है और सत्य तो यह है कि सत्य को प्रचार की जरूरत नहीं, सत्य तो उगता है और उसका प्रकाश स्वत: ही प्रसार पाता है। प्रसार सीमा रहित है और प्रचार सीमित रहता है ।
सत्य सबको छूता है, आत्मा जागृति करता है। उसके बाद तैयारी करनी होती है- एक ही समस्या, एक ही लक्ष्य की ओर। गांधीजी ने साथ-साथ सत्य को साधने की तपस्या की और साथ ही साथ स्वतंत्र भारत की कल्पना को साकार करने का पूर्ण कर्म। जैसे-जैसे कर्मगति पकड़ता जाता सत्य की साधना भी तेज होती जाती और उसी सत्य से अगले कर्म केसंदेश सीधे-सीधे मिलते जाते सर्वशक्तिमान स्रोत से।
नि:स्वार्थ निष्काम व सतत् कर्म करने वाले कर्मयोगियों का तो सत्य, श्रीकृष्ण की भांति सारथी होता है। यह कोई ज्ञान पूर्ण वाक्य नहीं है मानव जीवन को उत्कृष्टता देने, मानव को महान आत्मा बनाने का महामंत्र है। ऐसा महामंत्र जो जीना पड़ता है। न जपना न रटना न कहीं से प्राप्त करना। केवल अन्तरमन का सत्य, चिरन्तन सत्य के प्रति पूर्ण सजगता पूर्ण ध्यान ही है सच्चा ध्यान।
सत्य की राह थामने वाले को लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए को स्वत: ही साधन जुटने लगते हैं। हाँ, धैर्य की व साहस की परीक्षाएँ बराबर आती रहती हैं विवेक देने के लिए, दृढ़ता देने के लिए और सत्य की राह में असत्य न आने पाए, घुसने न पाए इसकी छँटनी के लिए। क्योंकि एक लक्ष्य के लिए साथ चलने वालों का भाव एक जैसा ही तीव्र और निश्चित होना चाहिए न कि उत्सुकता का भाव कि चलो देखें क्या है कैसा है कहाँ तक सफल है, कहाँ तक पहुँचा कहाँ तक पचहुँगा, आदि आदि।
मैं सत्य प्रेम कर्म व प्रकाशमय हूँ और जो यह हो जाता है उसमें विलय होकर उसकी आत्मशक्ति द्विगुणित कर सत्यमेव जयते को साकार करना ही सृष्टि का ध्येय है, प्रकृति का नियम है। जो इन चारों में से एक में भी पूर्णतया स्थित है वही इस परम योग का सुपात्र है ।
सत्यता आत्मबल का सबसे महत्वपूर्ण साधन है। सत्य निर्भय है और सत्य सर्वशक्तिमान है। सत्यवान के मन में जो संकल्प स्वत: उभरता है उस मार्ग पर वह अकेला ही चल पड़ता है बिना किसी गणना योजना या तकनीक बनाए। संसार की दी अपनी सभी समस्याओं से परे जाकर, मुक्त होकर विमुख होकर वह अपने सत्य के पूर्ण समर्पण में अपनी सत्य की शक्ति पर पूर्ण विश्वास के साथ उठ खड़ा होता है और अपना मार्ग चुनकर उसी पर चलता है सतत्ï निरन्तर। सफलता-असफलता की चिन्ता से मुक्त अपने सत्य में पूर्ण विश्वास, दृढ़विश्वास व पूर्ण समर्पण के भाव में। यही है सत्यता का सर्वशक्तिमान आत्मबल इसी आत्मबल के सहारे महात्मा गांधी ने भारत को आज़ादी दिलाई।
ऐसे ही प्रेम, पूर्ण प्रेम भी आत्मबल का मार्ग है, साधन है जो भक्ति की पराकाष्ठा को प्राप्त कराता है। मीरा नानक ईसा मसीह मदर टेरेसा आदि कुछ ऐसे ही आत्मबली हुए जिन्होंने जो संकल्प धारण किया उसे पूर्णता तक पहुँचाया। पूरी मानवता उनको वन्दनीय समझती है। इसी प्रकार पूर्ण कर्मयोगी का निष्काम कर्म भी आत्मबल का उत्तम साधन व मार्ग है एक बात सत्य है कि आत्मबल से ही सत्यभाव संकल्प सिरे चढ़ते हैं, पूर्णता की ओर बढ़ते हैं और यदि अपने जीवनकाल में वो संकल्प पूर्ण न हो पाए तो भी कोई चिन्ता नहीं। सत्यवान आत्मबली बीज तो बो ही देता है जो समयानुसार-समय आने पर अवश्य ही प्रस्फुटित हो पल्लवित होता है। जो तुम होओगे वो ही तो बीज डालोगे।
सही बीज बोना भी बड़ी तपस्या है मानव कर्म है। यह वही कर सकता है जो वो हो गया हो। आम का फल या आम ही आम का बीज देता है। सत्य विचार का बीज सत्य विचार ही होगा। आधुनिक युग में इसके सर्वोत्कृष्ट उदाहरण श्री स्वामी विवेकानन्द हैं।
चौथी सीढ़ी आत्मबल की है। प्रकाश पूर्ण ज्ञान मानव जीवन का ब्रह्माण्ड का, उसके क्रियाकलापों का, कालच्रक की पूर्ण प्रक्रिया का ऐसा ज्ञान जिसमें कोई प्रश्न बाकी नहीं रहता, अज्ञान का अंधकार होता ही नहीं है। सब स्पष्टता से सूझता-बूझता दिखाई देता है। संशय दुविधा द्वन्द्व नहीं पूर्ण आनन्ददायी प्रकाश। इसका उदाहरण महर्षी श्री अरविन्द व माँ हैं जो ज्ञान व विज्ञान द्वारा वेदव्यास की तरह सरस्वती माँ के आशीर्वाद से लिपिबद्ध भी हुआ है। ज्ञान का प्रकाश भी समयानुसार, समय की मांग के हिसाब से ही उतरता है और प्रकाशित मानव उसे धरती पर मूर्तरूप दे देता है लोग चाहे समझें या न समझें। यह प्रक्रिया युगों से चल रही है जो प्रकाशित होता है वो सुनाता भी है लिख भी देता है। इसी आशा में कि कभी तो कोई उसका सत्य समझकर काल का युग का प्रकृति का चिरन्तन सत्य आगे उत्थान की ओर ले जाएगा।
प्रकृति उदाहरण स्वरूप अवतार व उसके ज्ञान को ग्रहण करने वाले व लिपिबद्ध करने वाले का साथ अवश्य देता है। पर सत्यमय सत्यमार्गियों के अभाव में ज्ञान दूषित हो जाता है पर सत्य ज्ञान नष्ट नहीं होता। उत्थान की, प्रकृति की प्रक्रिया में अगला अवतारी उस ज्ञान को पुन: जागृत तो करता ही है अपितु उसमें युग के हिसाब से कुछ और नया भी जोड़ देता है- केवल बुद्धि से ही नहीं, कर्म से भी उदाहरण बनकर वो सत्य जीकर। अवतार प्रवचनकारी नहीं सत्य का मूर्तरूप, उदाहरण स्वरूप होता है। प्रकृति भी जानती है कि उत्थान कार्य की गति तो काल के हिसाब से ही चलेगी, इस कारण वो अपना कार्य निरन्तर करती ही रहती है और कोई न कोई मानव सत्य की निरन्तर प्रगति की कड़ी में जुड़ने को अवश्य ही तैयार कर लेती है।
यही है प्रणाम का सत्य क्योंकि अलग-अलग युगों में जो सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश के भिन्न-भिन्न रुप हुए उन्हें अब एकजुट होना है कलियुग में और यदि एकजुट न भी हुए तो उदाहरण स्वरूप तो होना ही होता है। ऐसा आत्मबल जिसकी प्राप्ति केवल पूर्ण सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश से होती है और यही प्रणाम की नींव है।
आज कलियुग में इतनी बुद्धि तो सबकी विकसित हो ही चुकी है कि क्या-क्या समस्याएँ विश्व के मानवता के भारत के सामने मुँह बाए खड़ी हैं उनके समाधानों के लिए क्या-क्या हो सकते हैं पर उन समाधानों को मूर्तरूप देने का ना तो किसी में साहस है और ना ही कोई सत्य आत्मबली नेतृत्व है नेता है। इसके दो कारण हैं सब समाधान में कोई न कोई सूक्ष्म स्वार्थ होता है। समाधानों को भी तकनीक में बाँध दिया जाता है उसे होने नहीं दिया जाता। यह नहीं होता कि चल पड़ो तन-मन-धन से, देखा जाएगा। हर समाधान का मीटिंगों मंत्रणाओं में कर्महीनों की तरह बैठकर कचरा कर दिया जाता है ।
दूसरा कारण कि यदि समाधन निश्चित भी हो जाए तो उसका श्रेय पाने की होड़ जोड़-तोड़ में उसको कार्यान्वित करने का नेतृत्व कभी सत्य सुपात्र को नहीं प्राप्त होता। यह दो कारण भी हैं और उदाहरण भी हैं। उदाहरणस्वरूप बन गए हैं हमारे दिशाविहीन युवाओं के लिए यदि उत्साही युवक कुछ करना चाहें उनका भी दुष्प्रयोग, उनकी शक्ति का प्रयोग भी सब अपने-अपने स्वार्थपरक उद्देश्यों में कर लेते हैं। उनको बढ़ावा या उचित मार्ग दिखाने की अपेक्षा उनसे ऊर्जा लेकर उन्हें लालच की भूलभुलैया में भटकाकर प्रगति को अवरुद्ध कर देते हैं। बुद्धि कुन्द और गति मन्द कर देते हैं अपनी मानसिक शक्ति और वाक्पटुता के बल पर।
प्रकृति की असंदिग्ध व्यवस्था ने मुझे सच्चिदानन्द स्वरूप में दृढ़ता से स्थित किया है। मुक्त हूँ स्वतंत्र हूँ निमग्न हूँ आनन्दमय हूँ। मुझे तो प्रभु ने दृष्टा बनाया है। सबका खेल आद्योपान्त देख रही हूँ। पर हाँ मानव जन्म, मानव शरीर पाया है इस धरती पर तो कर्मस्थली पर कूदना तो होगा ही अपना कर्म-धर्म निबाहने को। पर होगा सब प्रकृति की सम्पूर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ही उसकी परमबोधि के अनुरूप ही न कि मानव बुद्धि-जनित व्यवस्थाओं गणनाओं व मंत्रणाओं के हिसाब से।
तो हे मानव! सत्य हो जा कर्मठ बन अब समय नहीं रहा लहरें गिनने का। कूदना होगा ही अकेले ही, अगर कुछ करना ही है तो वरना साधारण-सी जि़न्दगी रोते-हँसते काट लो, बड़े-बड़े दावे बड़ी-बड़ी बातें करने का कोई औचित्य नहीं। प्रभु तो संतुष्ट जीव से भी खुश रहते हैं ।
महान कार्य के लिए महान होना होगा, व्यक्तिगत बातों से परे जाना होगा, ऊपर उठना होगा। सब अपना-अपना खेल खेलने आए हैं। सत्यता से अपना खेल जानो और कर्मरत होओ। बड़ा खेल खेलना है तो बड़ा बनना होता है। बड़प्पन-प्रभुता, सत्य की मर्यादा निरन्तर दृढ़त आस्था और अपने जीवन की प्राथमिकता जान तपस्या करनी होती है पूर्णता से।
उसी में रमने की आनन्द पाने की
और अपने मानव जीवन को
सार्थक करने की
यही है प्रकृति की,
काल की उत्थान की गति
ओ मानव,
कर ले शुद्धि बुद्धि की ।
यही सत्य है
यहीं सत्य है !!
- प्रणाम मीना ऊँ