हे मानव !
यही है तत्वज्ञान पाने और उत्तम जीवन जीने का महामंत्र। तुझे मानव जीवन क्यों प्राप्त हुआ इसी में छुपा है सारी सृष्टि का भेद। प्रकृति ने मानव को वह सभी गुण प्रदान किए हैं जिनसे दिव्यस्वरूप परमात्मा को जाना जा सके और उनका दर्शन तत्वज्ञान से पाकर धरा को आलोकित किया जा सके पर तू तो अपनी युक्ति-युक्त बुद्धि के फेर में पड़ जाता है। सच्ची प्रार्थना का स्वरूप ही बदल देता है। प्रभु से कैसे संवाद करना है यही भूल जाता है। पर धन्य हैं हमारे मनीषी ऋषि जिन्होंने इतने सारगर्भित ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं से सम्पर्क साधने वाले मंत्रों को उद्घोषित किया। इन्हीं में से एक है ‘अहमुत्तरेषु’- मैं उत्तम होऊँ, कितनी ऊँची प्यारी व सरल सी प्रार्थना है जबकि आज का मानव कैसे नीचे से नीचे निकृष्ट होऊँ इन्हीं उपायों की ओर खिंचता ही चला जा रहा है। इस मंत्र की साधना की सद्बुद्धि केवल माँ सरस्वती के आशीर्वाद से ही सम्भव है। उत्तमता की ओर अग्रसर होने का मार्ग है:-
* शरीर संहिता-शुचिता, पवित्रता, यम, नियम, व्यायाम। कृत्रिम प्रसाधनों की अपेक्षा उपयोगी प्राकृतिक सम्पदाओं का प्रयोग।
* आहार संहिता-सादा हल्का पौष्टिक भोजन मौसम के अनुरूप।
* मानव संहिता-मानव से मानव का व्यवहार, ढोंग-पाखंड से परे, सच्चे मानव धर्म का ज्ञान व पालन, हावभाव, भाव-भंगिमाएँ संतुलित, शोभामय, एक-सा प्रेममय व्यवहार, सत्यं- वद, हितंवद, प्रियंवद वाला आचरण।
* विचार संहिता-सकारात्मकता से परिपूर्ण, शान्त, प्रसन्नचित्त व सदा प्रगतिशील होने की सोच। सत्य व शुभ संकल्प।
* कर्म संहिता-प्रत्येक कर्म पूजा-अर्चना, अर्पण के भाव में अपने पूर्ण सामर्थ्य व पूर्ण मनोयोग से करना।
* ज्ञान संहिता-सत्य को ज्ञान द्वारा जानने की उत्सुकता, स्वाध्याय व सीखे, सुने, पढ़े ज्ञान को जीकर व अनुभव कर विवेक प्राप्त करने की कर्मठता व लगन।
* आत्म संहिता-अपने वास्तविक आत्मास्वरूप के ज्ञान-विज्ञान को जानने का सतत प्रयास। आत्मा को तो केवल आत्मा के गुणों में रम कर ही जाना जा सकता है। आत्मा सदा आनन्दमय व भयमुक्त है स्वतन्त्र सत्ता है उसकी जो मेरे-तेरे से परे है अपने में पूर्ण है मानव को उत्तमता की ओर ले जाने के लिए प्रकृति की दी गयी शक्ति है। तो हे मानव! जाग अपनी उत्तमता को उजागर कर इसी से होगा अज्ञान रूपी अंधकार का नाश और नवयुग का सुप्रभात।
- प्रणाम मीना ऊँ