हे मानव! तुझे मूरत बना भगवान बहुत ही भाता है क्योंकि वो तुझे तेरा सत्य नहीं बता पाता है। केवल तुझे रिझाने को साज सिंगार कर निश्चेष्ट बैठा रहता है और श्रृंगार के लिए भी तेरी कृपा का मोहताज रहता है।
प्रणाम मीना कोई मंदिर में गढ़ी निस्सहाय भगवान की मूरत नहीं जो भक्तों के चरण कमलों की प्रतीक्षा में द्वार पर आँखें गड़ाए रहे। जब तुम्हारी मर्जी या तुम्हारी जरूरत हो फल-फूल पत्र प्रसाद लेकर पहुँचो तब तक भगवान भूखे निरीह मंदिर में कैद बैठे रहें। पंडित जी के लाकअप में कैद। जब उनकी मर्जी हो कुछ सिक्के बटोरने हों तो थोड़ी-थोड़ी देर में झलक दिखलाकर बाहर का हवा पानी लगा दिया बस।
भगवान कैद बाकी पंडित जी इधर-उधर पैसा कमाने में लगे हैं कभी इस मंदिर कभी उस मंदिर और कभी घरों में पुरोहिताई कर यजमान बढ़ाते। व्यवसायियों की तरह जगह-जगह दुकान चलाते। भक्तों को भी जब मंदिर खुले तभी आ पाना है मजबूरी में, जैसे बड़ा अहसान कर रहे हों कि ठीक है मुसीबत में तो आ ही जाते हैं न, मंदिर में बैठे भगवान को भूले कहाँ हैं। जैसे एक कमरे में पड़े-पड़े बूढ़े माँ-बाप को कभी-कभी पूछकर बहुत महान काम या अहसान कर दिया।
अब मंदिर के लाकअप में कैद भगवान को छुड़ाना है। पंडित जी के मोहताज भगवान को इस सबसे बचाना है। भगवान को भी इन्सान की दिमागी उपज व समझ का एक उत्कृष्ट और सर्वोत्तम इन्सान समझोगे तो ही एक अच्छे इन्सान बन पाओगे। क्योंकि भगवान का काम तो तुम्हीं को तुम्हीं से मिलाना है तुम्हारे अन्तर्मन को जगाकर आत्मानुभूति कराके चैतन्यता व जागरूकता का मार्ग सुझाना है।
कसूरवार गलत मित्र या रिश्तेदार की भी तुम दे देते हो जमानत-बेल ताकि न हो जेल। भगवान ने किया क्या ऐसा कुसूर जो बिना मुकद्दमा चलाए दे दी जेल ताकि बाहर आकर तुम्हें शीशा न दिखा सके, तुम्हें तुम्हारी जात न बता सके।
क्या कभी कोई देगा
प्रभु की जमानत
जिसने भी कभी की यह हिमाकत
प्रभु को प्रभु के ठेकेदारों
लम्बरदारों और जेलरों से छुड़ाने की
उन्हें तो तुमने सदा ही युक्तियाँ कर डाली
दुनिया से ही उठाने की
ओ मानव!
ज़रा देख अपना सत्य रूप
कण-कण में व्याप्त उसका स्वरूप
कर अपना सत्य स्वरूप उजागर
सत्य प्रेम प्रकाश से
भर अपनी गागर
तू ही सागर है तू ही किनारा
ढूँढ़ता है तू किसका सहारा
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ