यह सत्य तो सभी जानते हैं, स्वीकारते भी हैं कि कोई भी मार्ग अपनाओ सभी परमात्मा तक पहुँचते हैं। पर यह सत्य समझने की चेष्टा कोई नहीं करता कि प्रत्येक मार्ग की अपनी साधना है जो व्यक्तिगत पुरुषार्थ पर निर्भर है। व्यक्ति यह तत्व भुलाकर अपने मार्ग को उत्तम बताने और जताने के फेर में स्वयं भी अपने धार्मिक मार्ग के कर्मकाण्डों क्रियाकलापों और दिखावटी प्रदर्शनों की भूल-भुलैया में जीवनभर फँसा रहता है।
अपने-अपने मार्ग को सही व सर्वोत्तम बताने में अथक प्रयत्न करने वाले स्वयं कहाँ पहुँचते हैं, ये तो वो ही जाने। अपने अपनाए धर्म को दूसरों के धर्म से बेहतर बताने वालों में से क्या कोई कृष्ण नानक ईसा विवेकानन्द कबीर तुलसी या गांधी जैसा महान मानव बन पाया या बना पाया।
मार्ग कोई भी हो, ज्ञान भक्ति या कर्म या अन्य कोई सब सीढ़ियाँ मात्र हैं प्रभुता की प्रभुताई- ऊँचाई तक पहुँचने की। अगर नहीं पहुँचे तो इसीलिए कि सीढ़ियों का ही बखान करते हैं कि कैसी है लोहे की या लकड़ी की, क्या बनावट है कैसी दिखती हैं आदि-आदि। बस लगे हैं तरह-तरह के शब्दों, अलंकरणों शानो-शौकत ऐश्वर्य के प्रसारों और फैलावों में, सीढ़ी की महत्ता बखानते ही जिंदगी चुक जाती है फिर कोई और विरासती टट्टू सीढ़ी की महिमा ढोने लगता है। सीढ़ी छत पर चढ़ने को होती है, यह नहीं कि ऊपर पहुँच कर भी सीढ़ी कंधे पर ढो रहे हैं। अगली चढ़ाई में अलग माप की सीढ़ी चाहिए होती है कुछ नए प्रकार की। यही तो होती है युग की मांग। पुराने रास्तों पर चलने से ही काम बन जाता तो अब तक अगणित कृष्ण कबीर नानक मीरा बुद्ध ईसा मूसा गांधी राम रहीम तैयार हो गए होते।
अरे चेत, ओ मानव! क्यों भ्रम में जीता है और औरों को भी भरमाता है। अपनी चेतना जगा और सर्वव्यापी व सर्वजागृत चेतन तत्व से नाता जोड़, योग कर, चैतन्यता से जीवन्त होकर जीना सीख, अपना सत्य जान सत्यता से जीकर।
सोच-सोचकर कर्म का कचूमर निकल जाता है और बोल-बोलकर आस्था का कचूमर निकल जाता है और जता-जताकर विश्वास का ढेर हो जाता है। ‘ऐसा मुझे करना है’ या ‘करना चाहिए’ यह सोच-सोचकर जबरदस्ती का काम, दुनियावी करने से थकान बीमारी तनाव विषाद अवसाद आदि सताते हैं, कर्म करने का आनन्द नहीं। कहना यह नहीं है कि सोच के कर्म या काम न करो। जरूर करो पर तंग न होओ। हो सकता है कि सोचे हुए काम से पहले परम चेतना कुछ ‘और’ करवाना चाहती है। जो उसकी परम व्यवस्था का विधान हो। ‘वो’ कुछ और क्या है इसे केवल सदा ‘ध्यान’ में रहने से ही जाना ‘ज्ञाना’ जा सकता है।
और यदि ध्यान इतना सिद्ध नहीं है तो पूर्ण समर्पण में रहकर अपने सोचे काम की जल्दी न मचाकर जो भी कर्म सामने आ जाए उसे पूर्णता से पूर्ण मनोयोग से करने में ही कल्याण है। इसमें कई दुर्घटनाएँ या व्यवधान टल जाने की पूर्व निश्चित संभावनाएँ छुपी हुई होती हैं। इसके अनेकों उदाहरण उपलब्ध हैं या मिलते रहते हैं।
बार-बार यह रटते रहना कि मैं तो पूर्ण समर्पण में हूँ, कह-कहकर अपने को मानसिक रूप से अचैतन्य करना है। बिना चैतन्यता के दोहराते रहना आप तो महान हैं, मैं तो पूर्ण समर्पण में तेरे हवाले हूँ आदि-आदि ऐसी कोई और भी बात बार-बार कहने पर अपना वजन और प्रभाव क्षीण कर देती है। पहले अपना संकल्प दृढ़ करो, यह नहीं होना चाहिए कि जब काम न संभले तो समर्पण और जब काम बन जाए तो कर्ताभाव का अहंकार।
समर्पण में बार-बार आस्था और विश्वास की परीक्षा होती रहती है। या यूँ कह लो कि जब तक समर्पण में पूर्णता नहीं आएगी, परीक्षाएँ आती रहेंगी। तो हमेशा ध्यान व चिन्तन में रहना होता है यह जानने के लिए कि कहाँ-कहाँ अपूर्णता आ जाती है। अपने ऊपर काम करना भी एक आनन्दमयी तपस्या है जो सदा सत्यता से साक्षात्कार कराने का मार्ग है।
तो हे मानव! अपना सत्य जान कर्म का विधान जान, अपनी क्षमताओं की क्षमता जान, इसीलिए तो तू आया है धरती पर प्रकृति का खिलौना बनके, जिसमें निरन्तर उन्नत होने का गुण विद्यमान है-मृत्युपर्यन्त। इस गुण को जान-समझकर जिसने ध्यान लगाया उसने ही प्रभु संदेश निर्देश व प्रेम विशेष पाया।
पहले विश्वास पक्का करो
चिंतन अधिक करो
कम कहो।
देखें कब तक कोई साथ चले
बिछुड़े सभी बारी-बारी
देखी जमाने की यारी
इतनी मुश्किल राहें मेरी
तन्हा खुदा से बात करूँ
यहाँ मैं किससे कहूँ
मेरे साथ चल
यहाँ सबके सिर पे सलीब है
न कोई दोस्त है न रकीब है
तेरा शहर भी कितना अजीब है
बस कृष्ण ही कृष्ण सबसे करीब है
मेरा कितना बड़ा नसीब है
यही मेरी पीर है
यही सत्य है !!
यहीं सत्य है !!
- प्रणाम मीना ऊँ