हुई अवतीर्ण एक मनु धरती पर
खिली प्रकृति की मानसपुत्री-सी
प्रकृति की इच्छास्वरूप मूर्तमान रूप
आप ही अपने को जाना-माना देखा-परखा
समझा-बूझा
और कस-कस कर जीवन को कसौटी पर
तत्पर हुई माना मार्ग चलाने को
चल पड़ी अकेले ही अकेले
सत्य की राह बनाने को
होने लगे रूपांतरित इस आभामंडल से
संसारी कर्मों के आकार-प्राकार
अज्ञान की घोर अँधेरी रातों में
प्रकृति के शाश्वत नियम स्थापन
सत्यदीप प्रज्वलन को
संकल्पित हुई धरा पर
ओ मानव सुन तो ज़रा
आत्मा की पुकार
सत्य का चीत्कार
अपने अणु-अणु में समाहित
दिव्य विभूतियों का
अपने अस्तित्व में दबी-ढकी असीमित क्षमताओं का
जानकर रहस्य हो जा चैतन्य
तेरे अंतस की पर्तों में छुपी
आतुर दिव्यता जागृति को
प्रकृति की अनन्य व्यवस्था के अनुरूप
सत्य प्रेम प्रकाश द्वारा पोषित होने को
हों सभी दिव्य आनन्द में लीन
यही आकांक्षा प्रकृति की
रहस्यमय प्रभु की प्रस्तुति की
पर संभावना रहती दूर ही दूर
क्योंकि अज्ञान ढके रहता भरपूर
उस स्फुलिंग को जो प्रभुता जगा प्रभु बना दे
बुद्धिजनित खेलों में मानव खेलता जाता है
प्रभु न होने के व्यर्थ बहाने सदा ही बनाता है
अपने आपसे ही दूरी के बहाने
परम आत्मा न होने के बहाने
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ