स्मृति अनंत सागर,
स्मरण की बना मथनी, बुद्धि की बना डोर,
इच्छा की लगा शक्ति, ध्यान का लगा ज़्ाोर,
काल का चक्र घुमा पाया अनमोल रतन
तत्व ज्ञान का मानव विधान का
स्वत: ही सीखो और आगे बढ़ो। यही है श्रीकृष्ण का स्वाध्याय योग। हम अपने अधूरे ज्ञान को बहुत कुछ मान लेते हैं, और उसकी अहंकारमयी चादर अपने चारों ओर लपेटकर अपना व्यवहार निश्चित कर लेते हैं। संसार से प्राप्त अपरा ज्ञान व तकनीकी ज्ञान को भौतिकता की अंधी दौड़ में व व्यापारिक दिशा में पूरी शक्ति से लगा देते हैं। व्यापारिक दृष्टिकोण का फल भी व्यापारिक ही होगा। जब तक उस भौतिक ज्ञान को भुनाने की शक्ति रहेगी काम चलता रहेगा जब शारीरिक शक्ति चुक जाएगी, एकदम खाली-खाली महसूस करोगे और जो संग्रह किया उसमें लिप्सा और आसक्ति बढ़ जाएगी। फिर बचेगा क्या बस, तनाव, कुंठाएँ, मानसिक-शारीरिक पीड़ाएँ और बीते दिनों को याद कर वर्तमान को कोसना।
कमाने और जीवन के भौतिक स्तर को बढ़ाने में पता ही न लगेगा कि जिंदगी के कितने खूबसूरत सुनहरे पहलू नजरअंदाज कर दिए। गीता में कहा है, भोगों के संग्रह के पीछे भागने वाले, उन भोगों का भोग करने योग्य नहीं रहते। अपने भौतिक ज्ञान, ऊपरी रखरखाव व पहनने-ओढ़ने को ही पर्याप्त मानकर क्षणिक संतुष्टि प्राप्त कर, अपने व्यक्तित्व व व्यवहार को एक साँचे में ढाल लेते हैं। अपने को, अपनी बुद्धि के अनुसार एक मानसिक व शारीरिक चरित्र देकर उसे एक छवि या इमेज में बाँधकर अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व बना लेते हैं और उसी के कैदी बन जाते हैं। जहाँ परिवर्तित तथा उन्नत होने की गुंजाइश ही नहीं रहती है।
खुले मन-मस्तिष्क का स्वामी समय के साथ बढ़ता व बदलता है। उसे किसी भी नकल से बनी हुई छवि को मनवाने के लिए, अपने व्यक्तित्व का रोब झाड़ने के लिए, विशेष लिबास या ओढ़ी हुई भाव-भंगिमाओं या व्यवहार के स्टाइल की बैसाखियाँ नहीं चाहिए। विशेष आचरण या अन्य शरीरी आकर्षण कब तक लुभाएँगे। इनका प्रभाव खत्म होने पर जब तक विरक्ति होगी बहुत देर हो जाएगी। जिसको जिंदगीभर कृत्रिम बनावटी साधनों से ध्यान आकर्षित करने का, प्रभाव पैदा करने का चस्का लगा रहता है वह जब इनका प्रभाव खत्म होते हुए देखता है तो दुनिया खत्म होती नजर आती है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियां चुग गईं खेत। इस स्थिति से तभी उबरा जा सकता है जब अर्थ के लिए कर्म करने का रहस्य जान लिया जाए।
जब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा – हे प्रभो! अगर फल की इच्छा न करूं तो मैं कर्म करूँ ही क्यों? तो उत्तर था कि कर्म न करने में तेरी आसक्ति कदापि नहीं होनी चाहिए। अर्थात खूब कमाओ, जितना उपयुक्त हो अपने लिए रखो अवश्य, मगर कहीं तो सीमा रेखा लगा लो। उसके बाद जो कमाओ उसे सत्य, प्रेम व कर्म के प्रभु के धर्म स्थापना तथा मानव उत्थान के कारण हेतु लगाओ राजा के धर्म की तरह।
क्योंकि संसार में सभी क्रियाकलापों, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व धार्मिक का अपना अपना महत्व है, योगदान है और पृथ्वी पर मानव के उत्थान को आनन्दमय बनाने के लिए आवश्यक भी है। बात सिर्फ सत्यता से कर्म रहस्य समझने की है न कि कर्म छोड़ने की। अधिकतर जब लोग या रिश्तेदार मिलते हैं तो ढेर सारी बातें होती हैं पर विषय वही पुराने कि क्या-क्या जोड़ लिया, बना लिया, बच्चे कहाँ तक पहुँचे, कौन कितना सुंदर-असुंदर या बूढ़ा हो गया। सब अपने अंतर की असुरक्षा की भावनाओं को दूसरे की भावनाओं से तोलकर क्षणिक अहमï् तुष्टिï पा लेते हैं।
मेंढकों जैसी दुनिया, सालों-साल यही किस्सा चलता रहता है। जोड़ना, जमा करना, खरीदना फिर प्रदर्शन करना। चाहे धन हो या शिक्षा एक होड़-सी, एक अजीब-सा मापदंड व्यक्तित्व विकास का, प्रगति का, उन्नति का, समाज में एक छवि बनाने का, इस छवि इमेज को बनाते-बनाते फिर बचाते-बचाते, दूसरों की कसौटी पर खरे उतरने की मूर्खतापूर्ण चेष्टाओं की भूलभुलैया में खोए हुए सत्यानंद से कोसों दूर, बनावट की, उधार की, दूसरों की मनवाई हुई जिंदगी रह जाती है हाथ मलती हुई।
अरे मानव! तुझे अपनी छवि ठीक रखनी है तो बस एक ही परम छवि के सामने वहाँ कोई बनावट न चलेगी। बस, मनसा-वाचा-कर्मणा सत्य ही उसे रिझाएगा। वह न गुन से रीझता है, न रूप से, न अर्थ से, न गंध से, न तप से, न पूजा की रीत से, वह तो बस सत्य से ही रीझता है। वह परम तो सबको परमानंद देकर, अपना स्वरूप देकर अपने जैसा ही सच्चिदानंद बनाना चाहता है। वहीं अपनी ओढ़ी हुई छवि को अर्पण कर दे। सत्य छवि का दर्शन लेकर तू सत्य रूप हो जा, सारा विश्व तेरी छवि का कायल हो जाएगा। युगों-युगों तक उस छवि की छवि रहेगी और औरों की छवि को भी प्रकाशित करेगी।
कहना यह नहीं है कि छवि की चिंता न करो, अवश्य करो मगर अभिनय, लीला की तरह विरक्त होकर। कुछ भी न व्यापे और यदि छवि खंडित भी हो तो स्वाभिमान को ठेस न लगे। उस परम ज्योति स्वरूप की छवि से एकाकार होने का क्या रास्ता है? सिर्फ सत्य और अपने से बार-बार पूछना कि कितना समझ पाए श्रीकृष्ण के अकेलेपन को, क्या गीता जीकर देखी, विवेकानंद को ढूँढ़ा, गुरुनानक को गुना, कबीर की मस्ती छाई, राम की झलक पाई अपने व्यवहार में, मन के कितने दीए जलाए उस अविनाशी की राह में, कितना ज्ञान के सत्य का नूर कमाया चेहरे पर, क्या देखना चाहा है उस परम प्रेम की ज्योति को अपने अंतर मन में, जो परमानंद दायिनी है।
कितनों को मुस्कान बाँटी, कितनों के दुख से द्रवित हुए। कैसा है बेगमपुर का मौसम बेगम यानि बिना गम का, जो गम से बेगाना कर दे। वही बे गम का शहर। कबीर जी ने भी क्या खूब कहा-
बेगमपुर में सोई जन पहुँचे, रोम रोम जिनके प्रेम की पुड़िया!
कहत कबीरा सोई जन जावै, ब्रह्मï अगन में तन मन जरिया।
ऐसी महान पावन भारत माँ जिसकी कोख से सैकड़ों अनमोल रत्न प्रस्फुटित हुए। क्या उस माँ को प्रणाम किया उसकी देखभाल या सेवा करने का कभी सोचा भी। अथाह भंडार है, ओजपूर्ण ज्ञानपूर्ण व तत्वपूर्ण वाणियों का, बस बात है तो उनका अनुसरण कर कर्म करने को प्रेरित होने की। अब भी समय है। आओ, भारत पर्व मनाएँ। सत्य, प्रेम व कर्म का प्रसार करें प्रकाश करें। भारत की छवि को अपनी छवि मान सजाएँ, सँवारें। असुंदरता को जाना ही होगा। यही प्रणाम का आह्वान है। यही सत्य है
एक ही विकल्प – सत्य संकल्प।
- प्रणाम मीना ऊँ