मानव ने अपने अस्तित्व का एक चक्र, सरल पवित्र शुद्ध आत्मवान और वास्तविक होने से लेकर चालाक पाखंडी धूर्त हेराफेरी और बुद्धि की जोड़ तोड़ से काम निकालने वाला होने तक का, पूर्ण कर लिया है। यह अनुभूत किए बिना कि इसमें उसने मानव जीव की प्राकृतिक उत्थान प्रक्रिया को कितना मलिन कर दिया है। वो मानव जिसे प्रकाश का ज्योतिर्मय पुंज, दिव्यता परिलक्षित करने वाला होना था वो मात्र बुद्धि की चतुराइयों और समायोजनाओं का उत्पाद बनकर अज्ञान के अंधकारमय कूप में गिरा हुआ यह सत्य भी समझ नहीं पा रहा है कि किस सीमा तक उसका पतन हो गया है।
इस कारण अब प्रकृति ने अपने हाथों में नियंत्रण की रास थाम ली है। इसलिए या तो अपनी बनाई हुई अनभिज्ञता की खाइयों में विनष्ट हो जाओ या स्वयं पर कर्म कर शक्ति पाकर इनसे बाहर कूद आओ। मानव इतना उलझ गया है नीरस सपाट सीधी क्षितिजीय रेखा जैसी जीवन पद्घति में जहां उर्ध्वगामी लम्बवत उल्लासपूर्ण उत्थान की कोई सम्भावना बची ही नहीं है।
बदलो बस बदलो केवल बदलो, रूपान्तरित होओ। सभी यंत्रवत बने बनाए गढ़े गए संदेशों और उधार के वाक्यांशों और सुख दुख के अवसरों पर भड़कीले आडम्बरपूर्ण ठाठबाट की व्यवस्थाओं वाले समारोहों को त्यागो। मानव ने इलैक्ट्रानिक माध्यमों को भी पूरा का पूरा निचोड़ कर पृथ्वी ग्रह और उसके आकाश को अनगिनत अनावश्यक अवांछनीय तत्वों, अनर्थक कुरूप दुर्वचनों बेसुरी अलयात्मक ध्वनियों और तुच्छ विचारों के स्पन्दनों से भर दिया है।
अब प्रकृति ने सबको घेर कर किनारे लगाकर बाध्य कर दिया है। प्रकृति और विज्ञान प्रदत्त सभी स्रोतों और सुविधाओं का अपने व्यक्तिगत आमोद प्रमोद व स्वार्थी लक्ष्यों के लिए अतिक्रमण, आवश्यकता से अधिक प्रयोग की लोभी व फैशनपरस्त पाश्चात्य की अंधानुकरण की आदतों को सुधारने के हेतु।
तो हे मानव अपनी सत्य सामर्थ्य को पहचान स्वनिर्मित अज्ञान के मकड़जालों को काटकर प्रेम व प्रकाश का प्रसार कर- सौन्दर्यमय हर्षदायक सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए। जीवन के प्राकृतिक बहाव के साथ बहो। प्रकृति व मानवता की सेवा करो। विकास और प्राकृतिक व क्रमागत मानव जीव के उत्थान की अगली कुदान के हेतु। तो सत्यमय होकर सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश का नवीन सूर्य उदय होने दो।
यही सत्य है, यहीं सत्य है, जय सत्येश्वर
- प्रणाम मीना ऊँ