मनका मनका फेरता गया न मन का फेर

मनका मनका फेरता गया न मन का फेर
कर का मनका गेर के मन का मनका फेर

माला के मनके घुमाता रहा और मन का, हृदय का फेर न गया, चक्कर न गया। अरे बंदे कर का, हाथ का मनका छोड़कर अपने हृदय के मनके को फेर उसको घुमा उलट-पलट कर देख तभी काम बनेगा।
मोको कहाँ ढूँढ़े रे बंदे मैं तो तेरे पास में,
ना काबे कैलाश में न काशी मथुरा वास में,
ढूँढ़ो मन को तो मिलूँगा पल भर की तलाश में


खूब पूजा की, भक्ति की, पूरी रीति से हवन अर्चना की। बड़ी अच्छी बात है। मन कुछ नियम संयम शान्ति तो पाता ही है पर सब पूजा पाठ तभी पूर्ण सफल होगा जब अपने अंदर जाकर वहां भी काम किया जाए। अपने अंदर जाकर मन की अदालत लगानी आ जाए वह ही सच्ची प्रभु की अदालत है जहाँ क्षमा ही क्षमा है प्रेम ही प्रेम है और शुक्रिया ही शुक्रिया है। इसको प्राप्त करने की सबसे बड़ी कुंजी है सत्यमय होना। सत्य क्या है-सत्य होकर ही सत्य को जाना जा सकता है। मन, वचन, कर्म से सत्य होना। जो सोचो वही बोलो, वही करो। तीनों को एक करना ही तपस्या है। तीनों को एक करने का अर्थ है आत्मा, बुद्धि और शरीर को साध लेना।

आत्मा जो सबकी सच्ची ही होती है उस आत्मा को पहचान कर उसकी सत्ता को न भूलना सद्बुद्धि देता है। सद्बुद्धि में सद्विचार होंगे तो अच्छा ही अच्छा सोचा जाएगा। जो सोचेंगे वही वाणी में बदलेगा फिर कर्म स्वत: ही अच्छे ही होंगे। जिसने यह मनसा-वाचा-कर्मणा तीनों एक कर लिए उसके पास सुदर्शन चक्र असत्य को मिटाने का आ जाता है। यह सत्य अविनाशी है, इसका नाश नहीं हो सकता। इसकी शक्ति से सब ज्ञानों के द्वार खुल जाते हैं, कुछ भी ढूँढ़ना नहीं पड़ता।

आजकल लोगों के पास बहुत से प्रश्न हैं। सबसे पहले कि सच्चा गुरु कहाँ मिले? कैसा हो? सच्चा गुरु ढूँढ़ना नहीं पड़ता अगर आप अपने ऊपर सत्यता से काम कर रहे हैं तो स्वत: ही सद्गुरु भी मिल जाएगा। क्योंकि सच्चे गुरु को भी सच्चे शिष्य की उतनी ही तलाश होती है, जितनी सच्चे शिष्य को सच्चे गुरु की। अपनी बुद्धि से नहीं तलाशना है सच्चा गुरु या किसी और के कहने में आकर कहीं पढ़कर या ऊपरी ताम-झाम टीम-टाम देखकर भ्रमित नहीं होना है। किसी ने सच कहा कि गुरु तो कस्तूरी देने आता है तू उससे भूसा मांग रहा है। सब गुरु सच्चे ही होते हैं पर हम क्या लेने जाते हैं, सारा खेल इसी पर निर्भर करता है। आप मकान, दुकान मांगने में सांसारिक सुख प्राप्ति में ही अटके हैं तो गुरु क्या करे?

हमारे धार्मिक ग्रंथों में एक बात अक्सर आती है, प्रभु ने दर्शन दिए और पूछा, वर मांग। अरे क्या प्रभु को ये भी नहीं मालूम कि तुझे क्या चाहिए वह तो अंतर्यामी है। उनसे क्या छुपा है फिर यह वर मांगने की बात कैसी? पर प्रभु तुमसे इसलिए पूछते हैं कि यह जानना चाहते हैं कि तुम कितने पानी में हो? तुम्हारी बुद्धि क्या मांग रही है। इसी मांग से तुम्हारी पात्रता पता लग जाती है और तुम्हें वही मिलता है जिसके तुम योग्य हो। मांगने के लिए भी सावित्री और नचिकेता जैसी सच्ची लगन चाहिए। सावित्री ने मृत्यु पर विजय पाई और नचिकेता ने सांपराय ज्ञान-मृत्यु के बाद का ज्ञान प्राप्त किया और हमेशा के लिए ज्ञान की अग्नि जलाए रखने का वर मांगा।

यदि आप सत्य रूप हो जाते हो तो खुद ही ऐसे चुम्बक बन जाओगे कि वातावरण और परिस्थितियाँ आपके अनुकूल बन जाएँगी। पाप-पुण्य को नियमों व सीमा रेखाओं में नहीं बाँधा जा सकता। जो एक के लिए पाप है शायद दूसरे के लिए न हो। तो पाप वही है जो आपकी आत्मा पर बोझ डाले। यह तो आपको स्वयं ही देखना होगा कोई और कैसे जान सकता है? जिस बात को आप सत्यता से दूसरों के सामने कुबूल न कर सकें, कह न सकें वही पाप हो जाता है बोझ हो जाता है आत्मा के ऊपर।

सत्य तो आज़ाद कराता है निर्द्वंद्व बनाता है आत्मा से एकाकार कराता है। निर्भय करता है। भय और कुंठा दोनों ही दुख का कारण हैं। कहने का मतलब है यदि हमें अपने चारों ओर झूठ और भ्रष्टाचार नज़र आ रहा है तो उससे लड़ने का एक ही तरीका है खुद सत्यमय हो जाओ, यह सोचे बिना कि हमारा इससे क्या फायदा है। यदि भगतसिंह आज़ाद या बिसमिल जैसे अन्य शहीद ऐसा सोचते तो देश कैसे आज़ाद होता यह उस वक्त का सत्य था कि विदेशियों की गुलामी नहीं चाहिए, चाहे जो हो। इसी संकल्प ने शक्ति दी। कर्म हुआ तो फल भी मिला। अगर भारत के वीर सोचते कि हम तो आज़ादी भोग नहीं पाएंगे तो हम क्यों अंगारों पर चलें? क्यों कष्ट भोगें तो क्या भारत आज़ाद हो सकता था?

आज भी स्थिति कुछ ऐसी ही है हमें झूठ, बनावट, भ्रष्टाचार और अपने स्वार्थ के लिए जीने वाली मानसिकता से लड़ना है यही आज का सच है। इस सच से मुँह चुराना कर्म नहीं है। कर्म है सत्यनिष्ठïï होकर शक्ति पाकर झूठ को नकारना उसके भागीदार न बनकर लड़ना। गांधीजी ने कहा-अन्याय को सहना भी अन्याय है। सत्य का रास्ता तपस्या का रास्ता है अगर एक बार इस रास्ते पर आ गए तो सत् चित्त आनन्द सच्चिदानंद जागृत हो जाएगा। जो स्वयं को तो प्रकााशित करेगा ही जग को भी जागृत कर प्रकाश की ओर ले चलने में सक्षम होगा। इससे बड़ा योगदान क्या हो सकता है मानवता के लिए। इससे बड़ा आनन्द क्या हो सकता है जो अंदर-बाहर प्रकाश कर दे। तो आओ, जो भी सत्यता से प्रेम व प्रकाश का पसारा चाहते हैं सत्यता का संकल्प उठाएँ और सत्यमेव जयते जो हमारा वैदिक सूक्त है उसकी सत्यता प्रमाणित करें। यह सत्यमेव जयते तो प्रकृति का अटल सत्य है स्थापित होकर ही रहेगा क्योंकि मानव चले न चले, प्रकृति अपना माध्यम स्वयं तैयार कर लेती है जैसे श्रीकृष्ण जी ने कहा संभवामि युगे-युगे। हर युग में आवश्यकता पड़ने पर अवश्य ही आऊँगा। वह युगचेतना अवश्य आती है जो मानव को रास्ता बताती है।

गांधीजी ने सत्य की तपस्या की, सत्य जीया, सत्य को सिद्ध करके शक्ति पाकर भारत को आज़ाद कराया, सत्य-कर्म किया समय की मांग के अनुसार, मोहनदास करमचंद गांधी नाम को सार्थक किया-अर्थात् कृष्ण के कर्म की सेवा कर्म का शिरोमणि बनकर की।

वो सच्चे युगदृष्टï थे। वह चाहते तो कर्म की मांग, सत्याचरण में अंत तक अपने को घिसना, उपनिषद् का ब्रह्मïवाक्य अपने जीवन में न उतारते। वह आराम से धार्मिक गुरु व राजनैतिक नेता बन सकते थे तो भी महान ही कहलाते। मगर उन्होंने त्याग का उदाहरण बनकर अपनी इच्छा से समय की मांग पर अपना बलिदान कर्म वेदी पर किया और महानतम मंत्र सत्य के लिए कर्म करने का दिया। उन्होंने गोली खाई अपना कर्म पूरा कर सत्य, कर्म और प्रेम का पाठ पढ़ा विदा हुए।

श्रीकृष्ण ने भी गीता विश्व को देकर अपना कर्म कर, धर्म कर, सत्य धर्म निबाहा तीर खाकर शरीर त्यागा। दोनों ने जीवन पूर्णता से जिया। हमें सब कुछ तो सिखा गए हमारे महापुरुष। सत्य से, कर्म से, प्रेम से कैसे अपने जीवन को पूर्णता देनी है यही है प्रणाम का आधार। इसी पर सुनहरे भविष्य का भव्य प्रासाद बनेगा। प्रणाम का यह विश्वास ही सद्संकल्प है। प्रणाम का होना अपने आप में पूर्ण है प्रत्यक्ष है प्रमाण है इसी सत्य का।
संभवामि युगे-युगे का।

  • प्रणाम मीना ऊँ

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