बहे प्रेम की गंगाधार यही प्रणाम का आधार

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय,
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय


क्या खूब कहा है कबीरदास जी ने। दुनिया में जिसने सच्चे प्रेम की झलक पा ली, समझो खुदा को पा लिया। क्योंकि सत्य अपनी चरम सीमा को पहुँचकर बस प्रेम ही प्रेम में बदल जाता है। एक ऐसी स्थिति हो जाती है कि सत्य और प्रेम एक ही हो जाते हैं।

प्रकृति माँ इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। गंगोत्री से बस एक पतली दूधिया धार बही और भागीरथ के अनथक प्रयत्न और प्रयास का उदाहरण बनी। अपने पुरखों के तरण तारण को, उनके अंतिम संस्कार को प्रेमपूर्वक करने का दृढ़संकल्प भागीरथ को इतनी अदम्य शक्ति प्रदान कर गया कि भागीरथ प्रयत्न मुहावरा ही बन गया और वह धारा भी भागीरथी कहलाई।

फिर उसमें अलकनंदा की धारा मिल गई तो देव-प्रयाग बन गया। आत्मा से आत्मा का प्रेमपूर्वक संगम प्रयाग जैसा तीर्थ बना देता है। फिर उसमें केदारनाथ से मंदाकिनी आकर मिल गई तो रुद्रप्रयाग बन गया और अलकनंदा का विस्तार बढ़ गया। उसके बाद उसमें पिंडार ग्लेशियर से पिंडार की धारा मिली तो कर्ण-प्रयाग बन गया। फिर नंदादेवी पर्वत से नंदाकिनी आकर गले मिली तो नंदप्रयाग बना। अलकनंदा की शक्ति और बढ़ गई, धारा और बड़ी हो गई। जब शक्ति बढ़ी तो उसमें पूर्णता के अवतार प्रतीक विष्णु नाम के प्रपात की जलधारा भी मिल गई तो विष्णु-प्रयाग बना।

इस प्रकार देव-प्रयाग से विष्णु-प्रयाग तक अलकनंदा पूर्णता को प्राप्त होकर ऋषिकेश, जो श्रीकृष्ण का ही नामरूप है, से अपनी पूरी गरिमा, प्रयागों के प्रेममय मिलन का पवित्र प्रसाद बाँटने मैदानों में उतरी। यही तो है प्रेम से सब पवित्र सत्यमयी धाराओं को अपने में मिलाकर समा लेने का प्रताप।
ज्योत से ज्योत जगाते चलो,
प्रेम की गंगा बहाते चलो।

माँ गंगा की प्रेममयी धारा सब गंदगी व कलुषता अपने साथ बहाकर ले जाती है, यही है सत्य पवित्र प्रेम की शक्ति। मन के सब विकार धुल जाते हैं, बह जाते हैं और जब-जब प्रेममय हृदय एकजुट होते हैं तो ऐसी शक्ति बन जाते हैं जो सारी घृणा के विष को ही धो डालते हैं। ऐसी शक्तिमान प्रेम ज्योति का प्रकाश स्वत: ही सारे अज्ञान के अँधेरों को दूर कर देता है। हरिद्वार तक आते-आते गंगा माँ का प्रेममय स्वरूप अपनी सब संतानों के लिए हरि का द्वार खोल देता है। वह हरि जो सब कष्ट हर कर मुक्त आनन्द की सीढ़ी चढ़ा देता है। हरि की पौढ़ी बन जाता है। फिर सूर्यपुत्री यमुना, जो श्रीकृष्ण की प्रेम- लीलाओं की साक्षी है और सरस्वती जो कि वेद-विज्ञान के उद्गम का अदृश्य कारण व शक्ति है, दोनों का गंगा में प्रेममय मिलन ही तो प्रयागराज का संगम बना देता है। कौन रोक सकता है इस अजस्र चिरंतन प्रेम की धारा को, इसके विशाल प्रवाह को जो प्रेम के अनंत सागर में मिलकर रहती है।

सूर्यदेव के प्रेममय स्पर्श से जो फिर बादल बनकर धरती पर बरस कर जीवनदायिनी जल प्रदान कर जीवन आनन्दित करती है। यह अद्भुत प्रेम चक्र प्रकृति युगों-युगों से चलाती ही रहती है। यही है प्रकृति का अपनी कृतियों के प्रति नि:स्वार्थ प्रेम। गंगा माँ इसी पवित्र और निर्बाध प्रेम का प्रतीक है। जीवनधारा है चलते चलो और प्रेम को अपने में समाकर उसी का ही प्रसार और विस्तार ही प्रकृति का अनमोल नियम है।

प्यार कोई बोल नहीं, कोई आवाज नहीं
एक खामोशी है, सुनती है कहा करती है
न यह रुकती है, न यह ठहरी है कभी
नूर की बूँद है सदियों से बहा करती है
सिर्फ अहसास है यह रूह से महसूस करो।


प्रेम की धारा एक ऐसा आत्मिक सुख देती है, जिसके कारण स्वत: ही आदर सेवा व भक्ति का भाव, सबके प्रति पैदा हो ही जाता है। ऐसा आदर जो निर्मल प्रेम जगाता है, ऐसी सेवा जो नम्रता लाती है ऐसी भक्ति जो लगन जगाकर जागरण कराती है, जिससे सारी सृष्टिï प्रेममय हो जाए ऐसा है परम प्रेम का जादू। सच कहा है-
खुदा ही प्रेम है, प्रेम ही खुदा है।
ऐसा प्रेम जो अपने-पराए का भेद मिटा दे बस देना ही देना जाने। देना जिसमें कुछ भी खर्च नहीं होता। क्षमा-दान, प्रेम-दान, अभय-दान, ज्ञान-दान, संस्कार-दान इत्यादि और प्रकृति भी तो बस देने ही देने का स्वरूप है। प्रकृति से जुड़कर उसी के अनुरूप होने से सारे रहस्य अपने आप खुल जाते हैं। कभी-कभी विवेक के साथ क्रूर होना भी प्रेम का एक पहलू ही है। प्रकृति की क्रूरता भी उसके प्रेम का ही रूप है, प्रकृति जानती है कब क्या अपूर्णता मिटानी है अनवरत उत्थान के लिए आगे बढ़ने के लिए। प्रणाम ऐसे ही प्रेममय प्राणों का प्रसार व विस्तार करने का सत्यमय अभियान है।

अपने-अपने बना लिए गए प्रेम के सीमित कुओं से बाहर आकर चहुंओर प्रेम प्रकाश फैलाना ही होगा। अपनी धरती माँ से ब्रह्माण्ड तक प्रेम संगीत ही गूंजे। सम्पूर्ण धरा पर कृष्ण के प्रेम के सभी आयामों का स्पंदन हो। वह प्रेम जो कर्ममय और सत्यमय, होकर पूर्णता पाए भारत के गौरव को गौरवान्वित करे, उसे प्रणाम का प्रणाम।

  • प्रणाम मीना ऊँ

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