विद्या अंधकार दूर करने का माध्यम है। अपने को समझने का दूसरे को पहचानने का, घर परिवार समाज देश राष्ट्रों और ब्रह्माण्डों को समझने-बूझने का ब्रह्मास्त्र है। सच्ची विद्या परमानंद पाने का, घर-बाहर व नक्षत्रों इन सबसे अपने को संतुलित कर, तारतम्य बना कर उनमें मानसिक रूप में समाहित होकर पूर्ण लयात्मक होने का ज्ञान है। इससे शक्ति पाकर चारों ओर परम शान्ति प्रेम और आनन्द स्थापना का महामंत्र है।
परमानंद प्राप्ति व ईश्वर प्राप्ति के बाद क्या करना है यही बताने का ज्ञान ही श्री विद्या है। कैसे दूसरों का ज्ञानदीप जलाना है उन्हें अपने से मिलना है अपना मार्ग स्वयं कैसे पहचानना है और निरंतर आगे बढ़ते ही जाना है। अपने शरीर, मन, बुद्धि व सब कर्मेंद्रियों व ज्ञानेंद्रियों को कैसे विकसित कर उनका प्रयोग सम्पूर्णता से सृजन करने, पूर्णता की ओर ले जाने और अपूर्णता के संहार में लगाना है। साथ ही साथ यह सत्य क्षणमात्र को भी नहीं भुलाना है कि ज्ञान का अहंकार ही एकमात्र असत्य है और ज्ञान का दुष्प्रयोग ही असत्य की स्थापना है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तंत्र, यंत्र और मंत्र से ही निबद्ध है जो व्यक्ति इस प्रक्रिया को जान लेता है वह ब्रह्मज्ञानी या तत्वज्ञानी होता है। मानव शरीर ब्रह्माण्ड की अनुकृति है। तंत्र का अर्थ है शरीर, मन व आत्मा का यांत्रिक स्वरूप। यंत्र का अर्थ है वह वाहन या मशीन जो तंत्र को धारण किए हुए है। मंत्र वह ब्रह्माण्डीय ध्वनि स्पन्दन है जो तंत्र और यंत्र को स्पन्दित करता है।
इस सर्वोपरि यंत्र-मानव की शारीरिक, मानसिक व आत्मिक प्रक्रियाओं का ज्ञान और इसका ब्रह्माण्डीय शक्तियों से तालमेल ही व्यक्ति को या तो तांत्रिक या तंत्रज्ञानी बना देता है। यह इस पर निर्भर है कि वह ऐसे दिव्य रहस्योद्घाटनों से प्राप्त शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार से करता है। तांत्रिकता इस ज्ञान का प्रयोग अज्ञानी मन द्वारा निर्मित स्वार्थी लक्ष्यों के लिए करने को प्रेरित करती है। तांत्रिक इस मानव यंत्र के सर्वोच्च ज्ञान के कुछ प्रभागों में निपुणता प्राप्त कर अपने सांसारिक व व्यक्तिगत लक्ष्यों को सिद्ध करने के लिए धनोपार्जन में लगाते हैं। परिणामस्वरूप आत्म-उत्थान के किसी एक सोपान पर ही ठहर जाते हैं। क्योंकि ऊर्जा तथा मानसिक शक्तियों के मनोनुकूल प्रयोग से उनकी साधना ठहर जाती है।
आजकल समाज का अधिकांश भाग तांत्रिक पद्धति से ही संचालित है। लोग किसी भी चीज़ में निपुणता प्राप्त कर लेते हैं। सजा सँवरा व्यक्तित्व दिखावटी बनावटी आचरण भिन्न-भिन्न टैक्नीकल कोर्सों से लेकर आत्म ज्ञान की पद्धतियों तक और तब इस अर्जित ज्ञान को व्यवसायिक बना लेते हैं। मानवता का उत्थान उनकी बुद्धि से परे ही रहता है। इस योग्यता के होने का आभास व इस शक्ति का उचित सीमा से अधिक लेन-देन में प्रयोग उन्हें अहंकारी बना देता है, जबकि तंत्रज्ञानी जिसे शास्त्र तत्वज्ञानी कहता है उसका कोई कर्ताभाव या अहंकार नहीं होता। वह उत्थान के पथ पर सदा ही परम चेतना से जुड़ा रहता है। उसके सब कृत्य ब्रह्मबोधि द्वारा निर्देशित होते हैं। उसका सम्पूर्ण अस्तित्व परम इच्छा के समर्पण में होता है। उस परम शक्ति के, जो स्वत: ही उत्थान के लिए कार्य करती है वो ही उसके विचारों व कार्यों का निर्देशन करती है।
इसको मानव के मानसिक खेलों द्वारा बदला या तोड़ा-मरोड़ा नहीं जा सकता। क्योंकि सच्चा तत्वज्ञानी कभी भी मस्तिष्क या दिमाग के धरातल से संचालित नहीं होता। वह ब्रह्माण्डीय बोधि का साक्षात् प्रवक्ता होता है और उसकी सारी ऊर्जा दिव्य कारण हेतु प्रवाहित होती है। विवेकानंद जी ने कहा कि इन शक्तियों का प्रयोग अहंकारी बुद्धि द्वारा प्रदर्शन में, होड़ में, सांसारिक रागों की तुष्टिïयों, तृप्तियों में लगाना सिद्धियाँ ही हैं। सिद्धियों में लिप्तता उत्थान के मार्ग की खाई हैं, गड्ढे हैं। इस शक्ति का प्रयोग उत्थान के पथ को प्रशस्त करने में लगाना ही सच्चा विवेक है।
प्रत्येक उन्नत आत्मा श्रीकृष्ण से योगी रामकृष्ण परमहंस से मदर पोंडिचेरी तक तंत्रज्ञान (ऑक्ल्ट) के मार्ग से ही गुजरे। यह तंत्र ज्ञान की सिद्धियाँ आत्म-उत्थान के मार्ग में एक सोपान मात्र हैं पर लक्ष्य कदापि नहीं। हम सब ब्रह्माण्ड की सुनियोजित व्यवस्था के एक भाग हैं जिसकी सटीकता शब्द सामर्थ्य से परे है। कुछ लोग अपनी-अपनी व्यक्तिगत क्षमतानुसार मन की शक्ति तक की स्थिति प्राप्त कर लेते हैं। पर कोई विरला चुना हुआ अवतार रूप ही आत्मा की शक्ति को प्राप्त होता है।
जिस समय मानव भिन्न-भिन्न प्रकार के वैज्ञानिक उपकरणों के आविष्कार में लगा रहता है। तरह-तरह की आध्यात्मिक पद्धतियों से सूचनाएँ एकत्र करता रहता है उस समय प्रकृति चुपके से सहजता से, अपनी समय विशेष परीक्षाओं और परम मेधा के मापदण्डों के अनुसार एक ऐसा मानव तैयार कर ही लेती है जो पूर्णतया उसके मन वाला होता है वेद विज्ञान, विद्या-ज्ञान से परिपूर्ण होता है। यही श्री विद्या की परिणति है। यह सब प्रकृति की मुक्त इच्छा का परिणाम है वह मुक्त इच्छा जिस पर किसी भी दबावों, गणनाओं, योजनाओं और जोड़-तोड़ का प्रभाव नहीं हो सकता।
प्रकृति सृजन करना पूर्णता तक ले जाना व अपूर्णता का संहार स्वत: ही तब तक करती रहती है जब तक उदाहरणस्वरूप मानव समय की मांग के अनुसार उभरकर सामने नहीं आ जाता है। यह सत्य अच्छी तरह जानते हुए कि परिणाम पूर्णतया सत्यमय पूर्ण तथा श्रीकृष्ण की तरह सौंदर्यमय व मनोहारी ही होगा यही तो होता है संभवामि युगे-युगे।
असली विद्या वही है जो सत् चित्त आनन्द बना सच्चिदानंद से मिला दे जिसमें आनन्द ही आनन्द है वह आनन्द जो न खुशी है न गम न अहम् न त्वम् एक अलौकिक अनुभूति सब कुछ समझबूझ और जान लेने की। न कोई प्रश्न न जिज्ञासा, न भागदौड़ न उत्सुकता बस परा चेतना से जुड़कर नित नवनूतन आनन्दमयी स्थिति, सदा उगने की खिलने की, आत्मानुभूति, प्रेममयी, सत्यमयी कर्ममयी जहाँ बस-
मानव हो मानव को प्यारा
करे प्रणाम जगत उजियारा
शान्ति विराजे मानव मन में
हो प्रभु वास सबके तन में
यही है प्रणाम का सबको प्रणाम।
- प्रणाम मीना ऊँ