हे मानव !
प्रेम का कोई परिचय नहीं, प्रेम की कोई सीमा नहीं
न कोई मोल न तोल, प्रेम न जाने पक्ष-विपक्ष
न घृणा-द्वेष न राग-विराग, ऐसे निश्छल प्रेम को ही
जो परम भक्ति जानते, वह प्रभु में और प्रभु उनमें
पूर्ण समरूप हो जाते
नि:स्वार्थ प्रेम एक अन्तरंग साधना है जो बाह्य तपश्चर्या व सब प्रकार के सम्बन्धों के मोह से परे है। ऐसे दिव्य प्रेम को हृदय में जागृत करने के लिए पल-पल अपने भावों को चैतन्यतापूर्वक सत्य की कसौटी पर परखना होता है। ऐसे प्रेम की प्राप्ति की सात सीढ़ियाँ हैं। आप इस सीढ़ी के किस पायदान पर हैं इसका परीक्षण आपको स्वयं ही करके निर्णय लेना होता है और इसका अवलोकन कर जांच-परख कर अपने पर काम करना होता है।
प्रेम विकास के सोपान-
– हम तभी प्रेम करते हैं जब कोई हमें प्रेम करे
– हम स्वभावगत स्वत: ही प्रेम करते हैं
– हम चाहते हैं कि बदले में हमें भी प्रेम ही मिले
– हम प्रेम करते हैं चाहे हमें प्रेम मिले या न मिले
हम यह कामना करते हैं कि हमारे इस नि:स्वार्थ प्रेम की प्रशंसा हो, स्वीकृति हो, पहचान हो। इस स्थिति से उबरकर हम केवल प्रेम करने के लिए प्रेम करते हैं तब कहीं जाकर अंतत:-
हम किसी भी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, धार्मिक व नैतिक अपेक्षाओं बंधनों व आवश्यकताओं से मुक्त होकर स्वाभाविक सरल पवित्र निर्मल और निश्छल प्रेम में जीते हैं। यही सर्वोच्च प्रेम ही आनंददायी व सुखदायी है।
बेगमपुर में सोई जन जावें, रोम रोम जिनके प्रेम की पुड़िया
कहे कबीरा सोई जन पहुँचे, ब्रह्म अगन पर तन मन जरिया
बे-गम बिना गम वाले नगर में वही जन जाते हैं जिनके रोम-रोम में प्रेम बसा हो जिन्होंने ब्रह्म ज्ञान रूपी अग्नि में तन मन अहम् सब तपा डाला हो। कितना सौंदर्यवान है दिव्य प्रेम जो कर दे दिव्य प्रकाश से आलोकित और बना दे मानव के पूरे अस्तित्व को एक अलौकिक अद्भुत रागिनी। सृष्टि ने जानी, मीरा ने बखानी, प्रीत की रीत पुरानी, सकल ब्रह्मïाण्ड समानी। बस प्रेम ही प्रेम तो है गोविंद हरि होने की निशानी और क्या प्रमाण तुझे चाहिए प्राणी प्रेम की प्रेम पर ही खत्म होती है कहानी।
यही सत्य है !!
प्रेम पगी बांसुरी थामे मन की डोर
प्रभु से लागा मन तो और कहाँ ठौर
- प्रणाम मीना ऊँ