प्रेम की शक्ति पूर्ण पवित्रता में है। प्रेम भगवान है
भगवान ही प्रेम है।
प्रेम के विकास के सोपान—
- हम तभी प्रेम करते हैं जब कोई हमें प्रेम करे।
- हम स्वत: ही प्रेम करे हैं।
- हम चाहते हैं कि हमें बदले में प्रेम ही मिले।
- हम प्रेम करते हैं चाहे कोई हमें बदले में प्रेम करे या न करे।
- हम यह कामना करते हैं कि हमारे प्रेम की प्रशंसा हो, स्वीकृति हो और पहचान हो।
- अंतत: हम प्रेम करने के लिए ही प्रेम करते हैं।
- हम किसी भी मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और नैतिक बंधनों, इच्छाओं व आवश्यकताओं से मुक्त हो स्वाभाविक, सरल, पवित्र प्रेम करते हैं। यह सर्वोच्च प्रेम आनंददायी तथा सुखदायी है।
पवित्र प्रेम शाश्वत है, मुक्तिदायक है, पमानन्द है। - प्रणाम मीना ऊँ