प्रणाम माँ सरस्वती कर प्रकाश, दे सन्मति

सरस्वती नमस्तुभ्यम् वरदे कामरूपिणीम्
विश्वरूपी विशालाक्षी विद्या ज्ञान प्रदायने।

हे माँ सरस्वती नमन वंदन, कामरूप सृष्टि उत्पत्ति की समग्रता में व्याप्त विश्वरूपिणी, सर्व विद्यमान, दूरदर्शिता से परिपूर्ण विशाल नेत्रों वाली विद्या और ज्ञान का वर दें। ब्रह्म की सृष्टिï को पूर्णता तक ले जाने का मार्ग सब प्रकार की विद्याओं और कलाओं से प्रशस्त करने वाली देवी शारदे सदा ही वंदनीय हैं।

दिन के आठों पहर में एक बार प्रत्येक मानव की वाणी में सरस्वती अवश्य ही प्रकट होती है। पर संसार में लिप्त मानव बुद्धि उसे समझ ही नहीं पाती। कई बार अनुभव तो सबको होते हैं कि किसी ने कुछ कहा और वह सच हो जाता है पर इस क्षमता को पूर्णता देना ताकि वाणी में सदा ही कमलासना का वास रहे यह केवल कस्तूरीयुक्त माँ सरस्वती की सतत् साधना व आराधना से ही सम्भव है।

इनका वाहन हंस है। हंस की विशेषता है कि अगर दूध और पानी मिला हो और वह उसे अपनी चोंच में लेकर उलीचता है तो उसकी दरांतीदार चोंच की एक ओर से एकदम स्वच्छ पवित्र पानी निकलता है और दूसरी ओर से एकदम शुद्ध दूध इसे ही नीर-क्षीर विवेक कहते हैं। सच्चा ज्ञानी वही है जो ज्ञान के फैलाव से सार तत्व निकाल ले। हंस की तरह मोती चुग ले।

माँ शारदे के हाथों में वीणा है जिसके सात तार हैं जो सात संस्कृतियों के सौंदर्यपूर्ण विकास का प्रतीक हैं। यह सात संस्कृति संहिताएँ हैं: –
शरीर आचार संहिता मस्तिष्क बोधि विचार संहिता
आहार संहिता आध्यात्मिक ज्ञान व
मानव संहिता आत्म संहिता संस्कृति।
कर्म संहिता


जिसने ये सातों सुर साध लिए उसे वीणा के दोनों ओर बने गोल तुम्बे भवसागर में डूबने नहीं देंगे। सात रंग, सात ग्रन्थियाँ, सात चक्र, सात आकाश, सात ऋषि, सात सोपान युगचेतना के और कम से कम सात वर्ष ही लगते हैं उस साधना में जो पूर्णतया रूपान्तरित कर दिव्य स्वरूप बना देती है यही संदेश है वीणावादिनी का। जब तक सातों तार सुर में न हों, कैसे निकलेगा मधुर जीवन संगीत?

शुभ्रवसना सर्वेश्वरी माँ के हाथ में कलम सत्य को लिपिबद्ध कर युगयुगान्तर तक अमर करने का सूचक है। सत्यम् शिवम् सुंदरम् सोचूँ बोलूँ लिखूँ। यही शब्दों में साकार कर उसे सुनहरी विरासत व अनमोल संस्कृति बना दूँ। यही ज्ञानयोग जगाने का संकल्प जगाती है भव्य प्रतीकात्मक आकृति भवानी सयानी दयानी महा वाक्यवाणी तेजोमयी जयति जय माँ सुर भगवती की।
जितने भी वेदसूक्त व सूत्र हैं उनकी सत्यता स्थापित करने के कर्म में ही सारी कलाओं के सौंदर्य की सार्थकता है। वे कलाएँ जो सत्य स्थापना को मूर्तरूप देती हैं वही दिव्य हो दिव्यता को परिलक्षित करती हैं। श्री सरस्वती का गायत्री मंत्र हैं:-
ऊँ सरस्वत्यै विद्यमहे ब्रह्मपुत्रै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्

माँ सरस्वती का भोजन बीज पाँचों मगज बंसलोचन मिश्री, मेवे, इलायची, कमलककड़ी, मखाने आदि हैं, जो मस्तिष्क की कोशिकाओं को पुष्टïकर बनाते हैं। धवल वस्त्र प्रतीक है शुचिता के। सफेद साड़ी लाल किनारी वाली प्रतीक है- पवित्रता के साथ-साथ संवेदनाओं व उमंगों से भी जीवन कलात्मक हो सदा वसंतमय हो।

तुलसी माला भक्ति व साधना में निरंतरता व दृढ़ता का प्रतीक है। हाथ में वेद ग्रंथ प्रतीक हैं उस ज्ञान-विज्ञान के जो चौंसठ कलाओं के पूर्ण विकास का आधार हैं। ऐसी कलाएँ और विद्याएँ जिनसे अनमोल भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध हो जो कभी भी लुप्त न हों, विनष्ट न हों, नित नूतनाम्बुदमयी हों। तभी तो सत्यमेव जयते होगा।

माँ सरस्वती किसी की चेरी नहीं स्वयं लक्ष्मी उनके साथ हो लेती हैं जिनके पास कलाओं का सत्यरूप व दिव्य स्वरूप है। आओ प्रणाम करें स्वाभिमान की रक्षाकर्त्री सर्वेश्वरी माँ को। उनका अभिषेक करें इस मंत्र द्वारा:- ऊँ हीं श्रीं सरस्वत्यै नम:

प्रणाम इस सर्वोत्कृष्ट सौंदर्यमय प्रतीकों में छुपे ज्ञान को जो भारतभूमि को सदा अग्रणी बनाएगा, सद्बुद्धि जगाएगा, आत्माएँ प्रकाशित करेगा, तभी तो भारत कह पाएगा कि इस पावन भूमि की संस्कृति महान है।
इस अटूट आस्था को प्रणाम का प्रणाम।

  • प्रणाम मीना ऊँ

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