सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तंत्र-यंत्र और मंत्र से ही निबद्ध है। मानव शरीर ब्रह्माण्ड की ही अनुकृति है। तंत्र का अर्थ है दिखाने वाले शरीर के अंदर फैला नाड़ी तंत्र शरीर, मन व आत्मा का आंतरिक स्वरूप। यंत्र का अर्थ है वो वाहन या मशीन-शरीर जो इनको धारण किए हुए जगह-जगह फिराता है कर्मों के हिसाब से। मंत्र व ब्रह्माण्डीय ध्वनि स्पन्दन है जो तंत्र और यंत्र को स्पन्दित करता है, जीवन्त करता है। ऊँ ही वो महामंत्र है।
इस सबसे ऊँचे यंत्र मानव की शारीरिक, मानसिक व आत्मिक प्रक्रियाओं का ज्ञान पाकर इनका ब्रह्माण्डीय शक्तियों से संतुलन बना लेना ही व्यक्ति को तंत्रज्ञानी या तत्वज्ञानी बना देता है। पर ऐसे दिव्य रहस्योद्घाटन से प्राप्त शक्तियों का प्रयोग अहंकारमयी बुद्धि से स्वार्थी व अहमयुक्त लक्ष्यों के लिए करना ही तांत्रिक बना देता है। तांत्रिक इस मानव यंत्र के ज्ञान के कुछ भागों में निपुणता प्राप्त कर अपनी शक्ति प्रदर्शन में व व्यापारिकता में लगाते हैं। परिणामस्वरूप आत्म-उत्थान के रास्ते में किसी एक ही सोपान पर ठहर जाते हैं, चुक जाते हैं।
कलियुग-मशीनी युग में समाज का अधिकांश भाग इसी तांत्रिक मानसिकता से संचालित है। लोग किसी भी चीज में निपुणता हासिल कर लेते हैं सजा सजाया व्यक्तित्व बनावटी-दिखावटी आचरण भिन्न-भिन्न तकनीकी पाठ्यक्रमों, Technical Courses, से लेकर आत्मज्ञान आध्यात्मिकता, Spirituality, की विधियों तक, और इनका खूब प्रयोग कर व्यवसाय बना लेते हैं। मानवता के हित का भाव उनकी बुद्धि से परे ही रहता है, बस अपना ही प्रचार और वर्चस्व उनका लक्ष्य बन जाता है।
तंत्रज्ञानी जिसे शास्त्र तत्वज्ञानी कहता है उसका तो सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही उस परम शक्ति के पूर्ण समर्पण में रहता है और ज्ञान को दिव्यता प्रदान करता है। वह प्रकृति के नियमों में बाधा बनने की अपेक्षा उसकी सत्यता उदाहरण बनकर स्थापित करने में ही लगा रहता है। कभी-कभी इंसान की सांसारिक इच्छाओं को पूरा न करने में ही उसकी भलाई छुपी होती है। यही तंत्रज्ञानी का विवेक है। वो जानता है प्राकृतिक नियम सर्वोपरि है।
प्रत्येक उन्नत मानव तंत्रज्ञान, Occult, से गुजरते हैं – श्रीकृष्ण से योगी परमहंस, रामाकृष्ण से मदर पांडिचेरी तक मगर कभी भी उसमें रमते नहीं है क्योंकि वो जानते हैं कि यह सिद्धियाँ आना एक पड़ाव मात्र है मगर लक्ष्य कदापि नहीं। विवेकानंद जी ने कहा- ‘सिद्धियों में लिप्त होना ही मानव के उत्थान के मार्ग के रोड़े
व खाईयाँ हैं।’
जो मानव अपने ही त्याग सत्य प्रेम ज्ञान ध्यान भक्ति कर्म व समर्पण से यह तंत्रज्ञान पाकर शक्ति पाकर तत्वज्ञानी होते हैं वो इन्हीं गुणों के प्रसार में लगाते हैं। और जो मानव इस शक्ति को धन, दान-दक्षिणा, टोने-टोटकों, उल्टे-सीधे कर्मकांडों,गुप्त रहस्यमयी युक्तियों से प्राप्त करते हैं वो तो इन्हीं में लगा सकते हैं।
गांधीजी ने अपनी सत्यता सेवा त्याग सादगी की तपस्या भक्ति पा माँ भारती मुक्त करा सच्ची सेवा की। कलियुग में सच्चाज्ञान कर्म व प्रेम-भक्ति ही पार लगाएगी इसलिए सदा यही प्रार्थना हो कि हे प्रभु! हमारे पास जो भी शक्ति हो तन-मन-धन ज्ञान की उसे सत्यकर्म व प्रेम के मार्ग में ही अर्पण करें, यही सन्मति प्रदान करो। सारा अज्ञान-अंधकार अपने आप ही ज्ञान व विवेक रुपी तलवार से कटे व बुद्धि प्रकाशित होकर जगत में सदा सत्य प्रेम व प्रकाश का ही प्रसार करे।
यही हमारा प्रणाम हो
सत्यमेव जयते
वन्देमातरम् !!
- प्रणाम मीना ऊँ