भाग-1
स्मृति सागर मथ-मथ मोती पायो, घट भीतर ज्ञान भक्तियोग जगायो।
सत्य, कर्म व प्रेम का पाठ पढ़ायो, प्रभु कृपा अनंता जान मन मुस्कायो।
कोई पूछे मेरा परिचय। संबोधन पूछने वाले की श्रद्धा पर निर्भर करता है। तू कौन है, तुम क्या हो, वैसे आप करती क्या हैं आप हैं कौन? प्रश्नों के कई रूप हो सकते हैं पर उत्तर तो सिर्फ एक ही है। शायद लोग मुझे पागल समझें जो उनकी बुद्धि अनुसार, उन्हें सही ही लगे।
हर युग में सत्य, कर्म व प्रेम का चिंतन, विचारक और प्रचारक पागल ही समझा गया और कई बार मारा भी गया यहां तक कि गीता देने वाले श्रीकृष्ण को भी गांधारी ने वंश नाश का श्राप दे डाला। पर अब उत्तर तो देना ही होगा मुझे। अगर मेरे अंदर बैठा अविनाशी तत्व मेरे मुख से यह कहलवाए कि मनु शरीर में वही अविनाशी तत्व है जो सब में व्याप्त है:-
मैं ही कृष्ण, मैं ही गीता, मैं ही राम, मैं ही सीता
मैं ही ईसा, मैं ही मूसा, मैं ही बाइबल, मैं ही कुरान
मैं ही नानक, मैं ही तुलसी, मैं ही मीरा, मैं ही गांधी
मैं ही गौतम, मैं ही बुद्ध, मैं ही कबीर, मैं ही अधीर
आत्मा के उत्थान हेतु जगत कल्याण हेतु सबको सन्मति दे भगवान। मैंने देखा है वह नूर जो सबमें व्याप्त है। क्या मानोगे यह तथ्य यही है सत्य। पर तुम्हें तो सुबूत चाहिए। ईसा से भी मांगा था ख़्ाुदा का बेटा होने का, मीरा से मांगा कृष्णमयी होने का, सुकरात से मांगा सत्य होने का। किसी को पागल समझकर मारा, किसी को गलत समझ कर मारा। जब मारना ही है गलत साबित करना ही है सही इंसान को तो सबूत क्यों? बाद में समय निकल जाने पर पूजना यही है मानवता की रीत। ज्ञानी उसे मानोगे जिसके पास उपाधियां हैं डिग्रियां हैं हजारों चाटुकार हैं। रवीन्द्रनाथ, कबीर, तुलसी कहाँ तक पढ़े और कहाँ पढ़े मेरे कन्हैया गीता। क्यों मान देते हो जाने के बाद जब उनके बताए रास्ते पर चलना ही नहीं है तो घंटिया बजा-बजा कर, मोमबत्तियां जला-जला कर क्या ढूँढ़ रहे हो। जो अंदर ही तो बैठा है।
मुझे नहीं मनवाना कि मैं देखती हूँ महसूस करती हूँ कि मेरे अंदर वही प्रकाश है जिसे तुमने अलग-अलग नाम दिए। मुझे सबूत नहीं देना। सबूत मांगने वालों का काम है सबूतों की भूलभुलैया में असली बात भुला कर बिन्दु से इधर-उधर भटकाना। परम कृपा से मानव तन पाया मनु स्मृति पाई स्वाध्याय, कर्म व भक्ति योग जगाया। नि:स्वार्थ प्रेम सदा सफल है। पूर्ण सत्य सदा जयी है। कर्ताभाव रहित कर्म ही धर्म है यही मोती पाए। बस शक्ति का यही वरदान चाहिए कि केवल प्रदर्शन में ही आसक्ति न हो। ज्ञान दीया जला अंधकार काटने में ही ऊर्जा व्यय हो, वेद-विज्ञान व विद्या-ज्ञान का प्रसार हो उदाहरण बनकर।
आजकल चारों ओर ज्ञान की भरमार है। सब अपने ही गुणों में खेल-खेल कर उसका ही बखान कर रहे हैं। पर सत्य तो यह है कि अवतार का विराट रूप पहचानने को, अर्जुन जैसा निद्राजयी, ज्ञान योगी, जिज्ञासु प्रश्नकर्त्ता चाहिए। अवतार मनुष्य की पूर्णता की परिणति है। जीव विकास के सात सोपान हैं जानवर, मानव, देवता, संत, गुरु, आचार्य, परमहंस आदि अवतार (स्वरूप) प्रकृति परमेय।
जानवर का सोपान ऊर्जा के ऊर्ध्वगामी प्रवाह का आधार है। यहीं से मानव विकास प्रारम्भ होता है। जैसे मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वाराहावतार आदि। मानव होना जीव विकास की सर्वोच्च सीढ़ी है। परंतु फिर भी चौरासी लाख जीवों के सभी गुण धारण किए हुए हैं। मानव को देवता होने के लिए इन गुणों को परिष्कृत करना होता है। निखारना व अनुशासित करना होता है। देव योनि में खुशी ऐश्वर्य व दूसरों की सहायता की सामर्थ्य है मगर इस अवस्था में संपत्ति खोने सत्ता फिसलने का सदा भय रहता है। संत की अवस्था में कुछ भी खोने का भय नहीं, सदा आनन्द व एकान्त है। कहा है-सिंहों के नहीं लेहड़े, संतों की नहीं भीड़ गुरु, आचार्य, परमहंस के ऊँचे-ऊँचे पद पर आसीन अपनी बुद्धिमता व ज्ञान से मानव उत्थान का मार्गदर्शन करते हैं। वह अवतार के गुण भी जानते हैं और प्राप्ति का मार्ग भी, परंतु होते नहीं हैं। अवतार युग का सर्वोच्च उदाहरणस्वरूप मानव होता है। अवतार मानव को सत्य राह सुझाने के लिए सबसे उन्नत व सत्यावस्था (सच्चिदानंद वाली) होती है। जो प्रकृति की ब्रह्मïबोधि (सुप्रीम इण्टेलिजेंस) स्वत: तैयार कर ही लेती है। मानव को अपने ही बनाए चक्रव्यूह व मकड़जाल से निकालने के लिए। अवतार की न कोई पदवी है न आसन। अपना जैसा लगे अपनों के बीच-अरे कहाँ हो राम! कहाँ खोए हो गोपाल। न कि श्री 108 स्वामी आचार्य महामहिम परमहंस आदि-आदि।
तभी तो श्रीकृष्ण ने गीता में कहा अज्ञानी लोग मुझे साधारण मानव मात्र समझते हैं और मेरा मर्म उन्हें न बताना जिनकी मेरे में श्रद्धा नहीं। पर एक बात सत्य है जब-जब अर्जुन जैसे प्रश्नकर्त्ता हों तो कृष्ण दूर कहाँ। यही होता है संभवामि युगे-युगे। जब कभी भी मानव जाति के प्रश्न चरम सीमा पर होते हैं तो उस युग में उनके उत्तर देने को एक उन्नत मानव सदैव विद्यमान होता है। पर प्रत्येक व्यक्ति उसे सुनने पहचानने के लिए उद्यत नहीं होता। लोग अपनी-अपनी बुद्धि से जाँचना चाहते हैं। पर सत्य तो बुद्धि से परे है। सब बोले गए, बताए गए लिखे गए, जीवंत सत्य शब्द जिस समय बोले बताए व लिखे जाते हैं उसी समय का सच होते हैं। पर जब लोग उसे कुछ-कुछ समझने लगते हैं तो समय आगे बढ़ गया होता है। और लोग उसी साँचे वाले अवतार को पुकारते रहते हैं। जबकि सत्य तो यह है कि कोई भी मानव अवतार एक जैसा हो ही नहीं सकता, न पहले कभी हुआ। रूप समयानुसार बदलेगा ही। यही है संभवामिï युगे-युगे।
भाग-2
अवतार का बस एक ही लक्ष्य होता है। सत्य, प्रेम व कर्म की नित्यता की स्थापना उदाहरण बनकर करना। अवतार का अर्थ है ‘अवतरण। सबके बीच सबका जैसा होकर रहना पर पूर्णतया निर्लिप्त होकर केवल दृष्टा बनकर। पूर्णता व सत्, चित्, आनंद वाले परमपद को पाकर, परम चेतना से जुड़कर, परम ज्ञानवान होकर भी पूर्ण नम्रता में सदा बंदगी में रहना। एक अच्छे इंसान की तरह। अवतार अपनी परम-पद वाली सर्वोत्तम स्थिति का मान त्याग, मानव को रास्ता दिखाने को रिझा-रिझा कर साधारण मानव की तरह लीलाएं करता है। जीवन की सभी विसंगतियों के बीच रहते हुए भी अपूर्णता व अज्ञान मिटाने का सतत कर्म करना ही उसका एकमात्र धर्म होता है। प्रत्येक उन्नत मानवों की अपनी-अपनी एक शृंखला होती है जो जिस श्रृंखला की क्षमता वाला होता है वह उसी से जुड़ जाता है। संत-संत से महात्मा-महात्मा से, परमहंस-परमहंस से ऐसे ही इत्यादि इत्यादि। यही प्राकृतिक नियम है। अवतार ही होने वाले अवतार की चेतना में स्वत: ही आकर बता देता है, पूरे निर्देशों के साथ, कि तुम आगे का कर्म संभालो अब, पर अब उसमें समयानुसार कुछ नया जोड़ना होगा नई तरह से, तभी तो होगा संभवामि युगे-युगे। आगे करना क्या है यह बताकर संकल्प डाल देता है। जिससे एकदम स्पष्टïता आ जाती है, जैसे एक एक रंध्र खुल और खिल गया हो।
योगी-योगी को आचार्य आचार्य को स्वत: ही पदवियाँ विरासत में देते जाते हैं। पर अवतार पूर्णतया प्राकृतिक चुनाव होता है। प्रकृति अपनी ही समय विशेष परीक्षाओं से अवतार को पूर्णता प्रदान करती है। प्रकृति से सीधा सम्पर्क होने के कारण प्रकृति के उत्थान की सूचनाएँ अवतार द्वारा मूर्तरूप होकर आगे ही आगे युग से युगांतर तक प्रसारित होती हैं और प्रकृति उत्तरोत्तर विकसित होती रहती है।
जब से सृष्टि बनी तब से सब याद रहना। सारे रहस्य, सारे सत्य समझ लेना मनुस्मृति है। गीता में भी श्रीकृष्ण ने कहा कि समस्त सत्य तथ्य को मनु ने सूर्यदेव से जाना। धीरे-धीरे यह ज्ञान लुप्त हो गया पर यह ज्ञान फिर से गीता रूप में अर्जुन को प्राप्त हुआ। वेद-सत्य, विज्ञान तथ्य, ज्ञान-विद्वता व विद्या-शिक्षा जब इन चारों दिशाओं से मानव पूर्ण हो जाता है तो यह उसका प्राकृतिक स्वरूप ही हो जाता है और यह उसके सम्पूर्ण शरीर तंत्र से स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होता रहता है। जो सोचा वही जीया, वही बोला, वही किया।
सब मनसा वाचा कर्मणा सत्य रूप से होता है। उसका सम्पूर्ण मानव यंत्र-तंत्र-मंत्र ब्रह्मïडीय बोधि का मूर्तस्वरूप हो जाता है जो सदा इस जगत को व्यवस्थित करता है दृष्टा बनकर और इसके लिए उसको किसी बाह्य शक्ति की आवश्यकता नहीं सब स्वत: व सहज ही होता जाता है। आंतरिक आत्म-शक्ति द्वारा।
अवतार की आधारभूत छह क्षमताएँ हैं-
पूर्ण ज्ञान-अपरा व परा ज्ञान। अपरा ज्ञान सांसारिक सीखा हुआ ज्ञान और परा मन बुद्धि के परे का ब्रह्मïण्डीय ज्ञान। जिसको दोनों का पूर्ण ज्ञान हो वही परा ज्ञान को अपरा ज्ञान के माध्यम से बता सकता है।
पूर्ण वैराग्य- पूर्ण कर्म करते हुए भी फल विचारों व्यक्तियों व परिस्थितियों से पूर्ण निर्लिप्तता व वैराग्य जो उदासीनता नहीं है। पूर्ण धर्म-प्रतिक्षण उस क्षण की मांग के अनुसार अपनी पूर्ण शारीरिक, मानसिक व आत्मिक क्षमतानुसार जीना प्राकृतिक नियमों के आधार पर। पूर्ण शोभा-वाणी के तथा क्रियाओं में लयात्मकता, मधुरता व पूर्ण शोभा का निरंतर प्रवाह होना। ऐश्वर्य-आनन्द, प्रसन्नता, शान्ति, एकान्त, करुणा प्रत्येक प्रचुर मात्रा में होना प्रत्येक के लिए कुछ न कुछ अवश्य होता है जो असीम ऊर्जा स्रोत से सदैव प्रवाहित होता ही रहता है निरंतर नित्य नयापन।
पूर्ण यश- प्रत्येक विचार शब्द व कर्म जगत उद्धार हेतु होता है हर समय आभामंडल से यशोवृद्धि की किरणें विस्तीर्ण होती ही रहती हैं। जब यह छह गुण सम्पूर्णता से एक शक्तिपुंज मानव में एकत्र होते हैं, इस सबके बाद, तब जाकर एक ऐसा भगवद- स्वरूप व्यक्तित्व उभरता है जिसके दर्शन में शीतलता प्रत्येक क्रिया में आकर्षण व मधुरता, वाणी में ओज व सत्यता का बल, और उपस्थिति में अद्भुत तेज होता है।
ऐसे अद्भुत तेज व चित्ताकर्षक स्वरूप को पहचानने वालों को प्रणाम का प्रणाम।
- प्रणाम मीना ऊँ