क्या कभी प्रकृति का मंदिर देखा है या किसी ने प्रकृति का मंदिर बनाने का सोचा भी है। जिस प्रकृति से मानव बना पोषित हुआ उसको कभी सच्चे मन से धन्यवाद किया है? जिसने सब कुछ दिया, देती रहेगी बिना कुछ लिए दिए, बिना कुछ भेदभाव किए तुम उसके लिए क्या करते हो ज़रा सोचो तो।
पूजा करने मंदिर जाते हो घुसने से पहले ही हिसाब किताब शुरू हो जाता है कितनी बड़ी माला, कितने का प्रसाद चढ़ाना है कुछ कम या ज्यादा ही हो जाए। कितने फूल तोड़े जाते हैं मसले जाते हैं सैकड़ों का व्यापार होता है। प्रभु तो एक फूल से ही खुश हैं न भी दो तो मन का भाव ही बहुत है। खूब प्रवचन सुना जाता है घण्टों समय बिता देते हैं। पर घर आते आते ही सब गुल हो जाता है वही राग-रंग, दुनिया के झमेलों में चक्रव्यूह में फंसकर अशान्त मन को फिर भी चैन नहीं है। प्रवचन की दो बातें भी याद करके उस पर अमल करना कितना मुश्किल लगता है। क्या करें समय ही नहीं मिलता।
आलस्य हमारा राष्ट्रीय धर्म हो गया है। जहाँ देखो वहाँ भीड़ ही भीड़ दिखती है। प्रवचनों में घण्टों सैकड़ों लोग बैठे सुन रहे हैं। हज़ारों कई-कई दिनों तक शादी की रस्में निभाते रहते हैं। शाम को घण्टों क्लबों, पार्टियों में, टी.वी. के सामने, बाजार में वस्तुएँ खरीदते रहते हैं। कपड़े, ज़ेवर खरीदना फिर उसको दिखाना भी तो होता है कितना भारी काम चलता रहता है।
खूब अच्छा लगता है बड़े-बड़े पंडाल सजे हैं खूब साफ- सुथरे, लंगर भी है प्रसाद भी है बैठे हैं अच्छी-अच्छी बातें हो रही हैं दिल बहल रहा है अच्छा समय बीत रहा है कुछ तो पुण्य मिलेगा ही। यहाँ भी यही भाव कुछ तो मिलेगा ही तो सब पहुँच ही जाते हैं। समय भी निकाल लेते हैं किसी न किसी तरह से। अगर गुरु महाराज यह कहें कि भईया एक जगह थोड़ी ज़मीन बंजर-सी पड़ी है बस आधा घण्टा के लिए आ जाना और एक-एक फीट जगह खुदाई कर तैयार करके एक-एक पौधा, जो तुम फूल चढ़ाते हो उसका या जो फल खाते हो उसका लगा देना, तो देखो कितने पहुँचेंगे। कोई कहेगा आपके खाते में धन दे देंगे, रुपए पैसे दे देंगे पौधा खरीदने के लिए। कोई कहेगा इतनी सी बात है, महाराज दस मज़दूर भेज दूँगा। धन्य है आजकल के गुरुओं की सहनशीलता भी। खूब जगह-जगह बैनर लगवाना, शादी के जलसे जैसा इंतजाम करवाना। शायद इसी से लोग खिंचे चले आएँ और उनका, लोगों का कुछ कल्याण हो जाए। उन्हें मोक्ष दिलाने की, लोगों का भला करने की कितनी अदम्य इच्छा है सबकी।
ऐसा तगड़ा इंतजाम होता है जिसमें कई गरीब लड़कियों की शादी हो जाए कुछ एक के घर भी बन जाएँ। पर सबका ध्यान एक ही रहता है कि कैसे ज्यादा से ज्यादा भव्य प्रदर्शन किया जाए। सबके अंदर असत्य की अशान्ति का जो इतना शोर है वो बाहर सुनाई न दे तो जोर जोर से माइक्रोफोन लाउडस्पीकर बजाओ। इतना ढोल ढमाका, शोर शराबा सब ध्वनि प्रदूषण के साधन। इतनी बिजलियाँ लगाई जाती हैं कि पूरा गाँव रोशन हो जाए। यह कोई नहीं सोचता कि बिजली उत्पादन कितना संकट से गुजर रहा है। बिजली प्राप्त करने के प्राकृतिक स्रोत सूखते जा रहे हैं। माँ तो एक दीए से ही खुश है। घंटों लाइन में लगे हैं दर्शनों के लिए चाहे घर में माँ भूखी बैठी हो। बस यही भाव, हमें दर्शन हो जाए और बस हमारे ही कष्ट दूर हो जाएँ मोक्ष मिल जाए किसी भी तरह से। गुरु महाराज जो कि योगी ही होते हैं उन्हें ही ठूँस-ठूँसकर खिला दें। चाहे उस शहर में उस समय कोई भूखा ही सो रहा हो या भूखा दम तोड़ रहा हो। अब समय है हमें अपने-पराए से उठकर, दिखावटी व आडम्बरयुक्त रीतियों से ऊपर उठ कर सत्य को स्वीकारना होगा। प्रकृति जो सबकी गुरु है माँ है उसकी सेवा करना। प्रकृति की बनाई हर चीज़ को प्यार करना। हर इंसान का आदर करना और प्रकृति जैसा देने वाला बनना ही होगा। नित नूतनाम्बुदमय होकर खिलना, निरंतर अपना कार्य अविचल अबाध गति से करते रहना चाहे कोई माने या न माने। इतना कुचलते हैं इतना गन्द डालते हैं पृथ्वी माँ पर फिर भी हरा ही उगाकर देती है कभी सहलाया या प्यार किया इस माँ को। उदाहरण भरे पड़े हैं कैसे कहीं दूरदराज गाँवों में कुछ लोग प्रकृति माँ की सेवा कर रहे हैं। उन्हें कौन शिक्षा दे रहा है।
बनावट और दिखावट प्रकृति और मानव की अपनी प्रकृति का स्वरूप नहीं है। इसी स्वरूप से कटकर मानव दुखों से ग्रसित होता है। प्रकृति को प्यार करना ही प्रकृति को पूजना है। अपने सत्यरूप भगवद्स्वरूप भगवान को अपने अंदर ही पहचानकर अपने को प्यार करना। अपने अंदर प्रकृति स्वरूप गुण जगाकर सत्यमय कर्ममय और प्रेममय होकर जीना ही सही जीना है।
ऐसे कर्म करो कि अपने को प्यार कर सको अपनी सच्ची प्रकृति को पहचानो और हर समय जो मिला है उसी के शुक्राने में रहो। तुम प्रकृति की सबसे प्यारी सर्वोत्कृष्ट कृति हो प्रकृति ने जो तुम्हें दिया और जो भी दुख-सुख देगी तुम्हारे ही भले के लिए देगी। प्रकृति अपनी सब कृतियों से प्रेम करने में सक्षम है। उसने जो मानव को इतने गुण इतने भाव दिए हैं उनकी छवि विलुप्त न होने पाए धरती पर प्रेम बढ़े प्रकृति का सुन्दर रूप बना रहे यही प्रणाम की प्रार्थना है-
मंगल छवि नैनों से देखूँ
मंगल ध्वनि को सुनूँ सदा
मंगल वाणी मुख से बोलूँ
संतन वाणी नमन पदा।
नैनों से सुन्दर ही सुन्दर देखूँ। सदा मेरे कान मंगल ध्वनियों को सुनें। प्रकृति की सुन्दरता को आत्मसात् करूँ। सदा मधुर व मंगल वचन ही बोलूँ और जो भी संत-महात्मा हैं उनकी वाणी को और उनके पदों को नमन कर अनुसरण करूँ । छोटी-सी प्रार्थना पूर्ण भाव से करना और मानना ही पूर्णता की ओर ले जाएगा। यही है प्रणाम का संदेश प्रत्येक अपूर्णता व झूठ को नकारो तभी तो पूर्णता व सत्य की ओर बढ़ोगे।
प्रणाम असत्य से सत्य की ओर अपूर्णता से पूर्णता की ओर विनाशी से अविनाशी की ओर जाने की प्रेरणा है इस प्रेरणा की स्रोत प्रकृति माँ को प्रणाम।
- प्रणाम मीना ऊँ