जागो, भारतीयों! महाकाल का तांडव प्रारम्भ हुआ। बार-बार चेताया-जगाया पर मानव अपने कर्मों की डोर से बँधा प्रकृति नटनी की कठपुतली बना ही रहता है। प्रकृति का न्याय सर्वोपरि है जो मानव बुद्धि से परे है। सब कर्मों का चक्र फल यहीं पूरा होता है यही है सत्य। पर इस चक्र के जंगली स्वरूप को सुव्यवस्थित करने हेतु मानव को बुद्धि दी गई। जिससे अच्छी समाज व्यवस्था, सच्ची न्याय व्यवस्था और नीति-युक्त राजव्यवस्था का सुंदर समन्वय हो सके। ताकि सब सभ्य समाज में मिल-जुलकर सुखपूर्वक आनन्दपूर्वक रहें, तरक्की करें और प्रभु के प्रेम रूप को धरती पर मूर्तरूप दे पाएँ। पर जब न्याय, समाज और राज सब की सब व्यवस्थाएँ सत्ता व स्वार्थ में लिप्त होकर झूठी और अमानवीय हो जाती हैं और जनसाधारण का उनमें विश्वास ही नहीं रह जाता तो जनता का क्रोध उन्माद के रूप में ही परिलक्षित होता है। उसके क्रोध-प्रदर्शन में विवेक या कोई व्यवस्था होती ही नहीं, क्योंकि उसके सब्र का बाँध टूट चुका होता है। मानव की जंगली प्रवृत्ति मुखर हो उठती है।
यही प्रकृति की गति व महाकाली का तांडव है जो कि महाकाल का निर्णय होता है। जब मानव सुव्यवस्था नहीं ला पाता व अपने ही बनाए चक्रव्यूहों में फँसकर मजबूर हो जाता है तो प्रकृति की संहार प्रक्रिया व छँटनी का दौर शुरू होता है। प्रकृति की अपनी न्याय व्यवस्था है जो मानव बुद्धि से परे तो अवश्य है पर अगम्य नहीं है। वह मानव जो सत्ययोगी व आत्मज्ञानी होकर, प्रभु से जुड़कर, दृष्टा बनकर हर घटना को सम्पूर्ण सृष्टि के विधान से, पूर्णता से जोड़कर देखता है वही यह रहस्य जानता है। यह सत्य सब जानते हैं कि सब मानव यहाँ धरती पर माध्यम रूप ही हैं तो जिसने अपनी मानसिकता को जैसा ट्यून कर रखा है प्रकृति उससे वैसा ही काम अपने हिसाब से करा ही लेगी। प्रणाम शुरू से ही बता रहा है कि सतयुग आने से पहले छँटनी शुरू हो जाएगी और झूठ ही झूठ को मार लेगा। सत्ययोगियों की मन की शक्ति व आभामण्डल से ही यह काम हो जाएगा।
अग्नि, सीता के समय से ही, सच को न जलाने की साक्षी रही है। अब सबको अग्नि परीक्षा से गुज़रना ही होगा। आंतरिक अग्नियाँ बीमारियाँ ऐसी कि डाक्टर न पकड़ पाएँ। बाह्य अग्नियाँ, बम विस्फोट, दुर्घटना, भूचाल, जंगल की आग, मानवकृत आग इत्यादि। मानव अपनी बुद्धि से सोचता है कि क्यों कोई निर्दोष मारा जाता है, जब भूचाल, बाढ़, आग इत्यादि प्राकृतिक प्रकोप होते हैं। परन्तु प्रकृति की ब्रह्मबोधि जानती है किसे नष्ट करना है, किसे जाना है, कैसे जाना है, मानव उसे रोक ही नहीं सकता। यही सत्य है। मानव के इतिहास में हिंसा की कभी भी कमी नहीं रही है। त्रेता में यज्ञ-विधानों में बाधा, राम-रावण युद्ध, द्वापर में महाभारत, भाई-भाई युद्ध, कलियुग में सम्राट अशोक द्वारा हिंसा का तांडव फिर बाहरी आतताइयों का बार-बार भारत पर आक्रमण। कोई अवतारी भी न रोक पाया बल्कि परोक्ष-अपरोक्ष रूप से भागीदार ही बना। भारत में जयचन्दों की कभी भी कमी नहीं रही। प्रकृति ने ही सृष्टि रची, मानव बनाया, उसे बुद्धि दी और तमाशा देख लिया। अब प्रकृति पुन: अपने आप निर्णय कर लेगी जिन्होंने बुद्धि अपने मन के हिसाब से जोड़-तोड़ में लगाई, स्वार्थों में लोलुपता में भोगों में रमाई, उन्हें आपस में ही भिड़ा देगी। जिन्होंने सत्कर्म व प्रेम की साधना में लगाई उनका रास्ता निष्कंटक करेगी क्योंकि वही तो सतयुग लाने के माध्यम बनेंगे। हम सबको यह सत्य एक क्षण को नहीं भुलाना है कि हम सब माध्यम हैं। न कोई ऊँचा न नीचा, न छोटा न बड़ा, न पापी न पुण्यात्मा, न कर्ता न धर्ता। शैतान के भी माध्यम हैं, भगवान के भी, सबमें प्रकृति की लीला समाई है। दोनों शक्तियाँ प्रकृति के नियमों में बद्ध हैं। यही खुदाई है। शैतान पालनहार नहीं और राम, दुर्गा हत्या करके भी हत्यारे नहीं। हमें अपना विवेक जगा कर, बस अपने को देखना है कि हमने अपने को सच्चाई से किस खेमे के लिए तैयार किया है दिन के लिए या रात के लिए। अपनी प्रवृत्ति व प्रकृति दोनों को जानना है, सँवारना है-पूर्णता से, प्रकृति के खाते में प्रतिशतता नहीं होती, शत-प्रतिशतता होती है। या आप में पूर्ण सच है या पूर्ण झूठ। क्योंकि प्रकृति, ब्रह्मï का, पूर्णता का मंत्र है : –
पूर्णमिद: पूर्णमिदम् पूर्णात पूर्ण मुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाऽवशिष्यते।
यह तो प्रकृति में स्थित आत्म तत्व की बात है
ब्रह्मïबोधि की बात है, जो चिरंतन सत्य है
यह तो प्रकृति की बात है सत्य प्रेम व कर्म की बात है
पर सौ बात की एक बात है
अब महाकाल की छँटनी की रात है
प्रणाम कृतसंकल्प लाने को सुप्रभात है
यही तो सत्य के मुस्कराने की बात है
प्रणाम को ही प्रणाम करने की बात है-
जान लो यह बात निकट है नवयुग का सुप्रभात
सत्य, प्रेम व कर्म की सौगात को प्रणाम
- प्रणाम मीना ऊँ