पूर्णता की सच्ची साधना

पूर्णता की सच्ची साधना

हे मानव !
पूर्णता की साधना प्रत्येक पल को सम्पूर्णता से जीने में ही निहित है। सच्ची साधना वही है कि जो भी कार्य आपको प्रभु कृपा से प्राप्त हो गया उसे ही अपनी पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से निभाना और पूर्णता की ओर ले जाना। पूरे मनोयोग से किया गया कार्य ही बड़ाई पाता है प्रभुता प्राप्त करता है। जब भी कोई नया आविष्कार या कार्य सम्पन्न होता है तो वह इसी बात का साक्षी है।

सारा ज्ञान-विज्ञान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्याप्त है और मानव इसी असीमित सत्ता का छोटा सा अणुरूप अनुकृति है। ब्रह्माण्डीय तत्वों का ही तो पुंज है मानव। तो जो ज्ञान ब्रह्माण्ड संजोए है वही मानव मन मस्तिष्क में अदृश्य रूप में संचित है। जो सौर ऊर्जाएँ व ब्रह्माण्डीय शक्तियाँ चारों ओर हैं वही सब मानव में भी हैं। पर पूर्णता की साधना करने वाला जो मानव ध्यान की शक्ति पूर्णतया केन्द्रित कर ब्रह्माण्ड में व्याप्त ज्ञान से सम्पर्क कर उसे अपने अंदर जागृत कर लेता है वो ही युगदृष्टा, दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि बनकर ऐसा कुछ नया कर पाता है या कर लेता है जो पहले किए गए आविष्कार अथवा कार्य से भिन्न तथा उन्नत होता है। इसी प्रकार संत, गुरु, आचार्य आदि उन्नत होते हैं।

दिमाग की उपज कुछ नहीं सब दिमाग की खोज है। जिसे अपने सत्य और पुरुषार्थ से पा लेना होता है पूर्णता व सत्यता को पाने का अनुभव कर जानने की क्षमता व पुरुषार्थ की शक्ति प्रकृति ने सबको दी है। ये क्षमता व पुरुषार्थ तेरे अंदर ही तो है पर अज्ञान, मोह व स्वार्थ से ढका हुआ है।

पूर्ण समर्पण में रहकर पूरा ध्यान केन्द्रित कर मानव पूर्णता का सत्य विज्ञान खोज ही लेता है। पर खोज कर उस तक पहुँचकर घमंड क्यों? अरे वह सब तो था ही, है ही और रहेगा ही यही सत्य है तू उस तक पहुँच गया ये प्रभु-कृपा द्वारा ही सम्भव हुआ। इस ज्ञान प्राप्ति के बाद प्रचार क्यों व्यापार क्यों अपने अहम् प्रदर्शन के लिए। प्रचार के स्थान पर प्रसार कर ओ मानव! ताकि मानवता का कल्याण हो। अगर एक भी मानव पूर्णता का रहस्य जानकर बदल गया तो औरों का भी स्वत: ही रूपांतरण होता चला जाएगा।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों प्रतीकात्मक स्वरूप तेरे ही भीतर हैं ओ मानव! जीवन में नित नवीनता जगा, रोज कुछ नई कृति कर कृतित्व का सुख पाकर, ब्रह्मा हो जा। कृति को पूर्णता की ओर ले जाकर पूर्णता का सुख पाकर विष्णु हो जा, लक्ष्मी पैर दबाएगी पर उसे सिर न चढ़ा। कृतित्व व पूर्णता का आनन्द पाने पर भौतिक सुख पा ले पर सच्चे आध्यात्म सुख के लिए संतुलन का डमरू बजा, अपूर्णताओं और कमियों को नष्ट करता जा। अपूर्णता के संहार के लिए तांडव कर उन्नत होता जा, अपने अंतर के सत्यं शिवं सौंदर्य को प्रस्फुटित कर विकसित कर शिव हो जा पूर्णता का आनन्द ही परमानंद है।
यही सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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