घनेरे बादल छू रहे तन को
अतुल प्रेम से भरते मन को
अंक में बादलों के यह शरीर नश्वर
ठंडी-ठंडी सीली-सीली अनुभूति मधुर
चारों ओर पेड़ ही पेड़ पौधे ही पौधे
झूमती लताएँ औ’ रंगीन फूलों के बूटे
दिखते दूर-दूर जहाँ तक दृष्टि समाए
मीना जीव के चारों ओर घेरा-सा बनाए
नि:शब्द समर्पण में रहे भीग
पर्वत महायोगी आँखें मींच
मेरा अस्तित्व इस सम्पूर्णता का हृदय जैसा
साक्षी केवल नश्वर शरीर का स्पंदन
शाश्वत प्रकृति नटनी के नर्तन का
बादलों की टप-टप रुनझुन का
पहाड़ियाँ पेड़ तलाएँ भीगते गुपचुप से
एक दाता एक क्लांत एक उग्र एक शांत
बादल स्वच्छंद निश्शंक
मुझे छूते घूमते चारों ओर
पंचतत्व की अनुभूति पाने
मानव गंध अपने में समाने
पर होता नहीं एकतरफा कोई खेल
मनभावन नमीं करे आत्मा से मेल
नन्हा-सा अणु स्वरूप आत्मा मंडल मेरा
विराट आभामंडल में प्रकृति के हो विलय
एक रूप हो समरस हो रहा
पृथकत्व भाव तिरोहित हो रहा
अब बादल का प्राण मेरे प्राण को
धरती-आकाश सब जगह डोलाए
जहाँ-जहाँ मन भाए बरसाए
धाराएँ बन समुद्र में समाए
फिर तप-तप भाप बने उड़ जाए
नियंता का कालचक्र बन जाए
नियंता का कालचक्र बन जाए
यही सत्य है !!
यहीं सत्य है !!
- प्रणाम मीना ऊँ