हे मानव !
तू प्रकृति बचाने की, पर्यावरण संवर्धन की बड़ी-बड़ी बातें करता है। वातानुकूलित कमरों में अपार धन फूंककर गोष्ठियों और सभाओं का आयोजन करने का दिखावा खूब कर रहा है। इन सेमीनारों का प्रदूषण कौन सम्भालेगा! बौद्धिक कचरा, खाने-पीने की व्यवस्था का कूड़़ा और कितने ही कागज फू ल-मालाएँ, दुनियाभर का तामझाम और माइक्रोफोन का शोर-शराबा। जितनी बड़ी पद-पदवियाँ, जितनी ऊँची पहुँच उतना ही बड़ा सेमीनार। इन सबसेे कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। जब तक तू अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति सही नहीं करेगा, अपना आन्तरिक प्रदूषण साफ नहीं करेगा, हर समस्या को सेमीनार और गोष्ठियों में सीमित कर अपना ही अहम् तुष्ट करने की नहीं सोचेगा, पहले स्वयं पर काम करने का उद्यम नहीं करेगा, बाहर से किसी भी समस्या का समाधान कभी भी पूर्णतया नहीं हो सकता तब तक मानव यह नहीं समझेगा कि बाहर जो कुछ भी घटित होता है उसका कारण, बीज उसके अन्दर ही है उसे ही पहले भस्म करना होता है।
तू प्रकृति को बचाने वाला कौन होता है-यह अहम् या वहम् न पाल। पहले प्रकृति से सच्चा प्यार करना तो सीख, उससे संवाद करना तो सीख। प्रकृति से केवल ऊर्जा व शक्ति लेना और फिर छेड़छाड़ करना यही तो कर रहा है तू! अपनी वास्तविक प्रकृति और बाह्य ब्रह्माण्डीय प्रकृति केनिरन्तर शोषण व अनपेक्षित प्रयोग के फलस्वरूप त्रासदियों के थप्पड़ तो पडेंगे ही।
उनसे सीख ग्रहण कर, ओ मानव! प्रकृति तो चेता रही है। ओ मूर्ख प्राणी! अब भी समय है, अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति सुधार ले। नहीं तो, प्रकृति तो सर्वसमर्थ है, स्वयं अपना रास्ता निकाल ही लेगी, अपना कर्म चुन ही लेगी, बहा देगी सारी अपूर्णता; उखाड़ फेंकेगी सारी कुव्यवस्था, उड़ा देगी सारी विषमता, जला डालेगी सारी कुरूपता। केवल तू ही सिर धुनता, हाथ मलता रह जाएगा। जब कुछ देगा ही नहीं तो पाएगा क्या…
प्रकृति तो चाहती है कि तू प्रकृति की तरह सदा देने वाला ही बन क्योंकि तू प्रकृति का ही तो अंश है। अपना उत्थान निरन्तर कर, अपने को परिष्कृत कर, सतत्ï प्रवाह में रहकर चारों ओर का वातावरण सौन्दर्यमय कर, पर तू तो भाषणबाजियों में और बौद्धिक युक्ति यों में ही फंसा है। तेरे पास समाधान है, यही तेरा अहमयुक्त दर्प है। इसका बखान तो खूब कर लेता है पर काम और लोग करें, यही भाव हो गया है। बैठे-बैठे गाल बजाना, बौद्धिक मजमा लगाना।
तू जहाँ है वहीं से शुरू तो कर। मन का तन का फिर अपने चारों ओर से असुन्दरता व अपूर्णता तिरोहित करने का संकल्प उठाकर कर्म को तत्पर तो हो। एक भागीरथ ही काफी होता है पवित्र गंगाधार अवतरण को। तो हे मानव! उतिष्ठ, अपने भाव-विचार समाधान को संकल्प रूप देकर पुरुषार्थ को उद्यत हो, पूर्ण कर्मयोगी बन तो सही।
- प्रणाम मीना ऊँ