मैं अपने सृजनहार की ओर अनुकम्पा के लिए मुड़ी
मुझे प्रकृति में ही सांत्वना मिली
और देखो तो प्रकृति ने मुझे सब कुछ दिया
मेरी सारी भावनात्मक आवश्यकताओं को थपथपाया
ऊर्जा दी सांसारिक कर्मों व दिव्य कृत्यों के लिए
तृप्त किया मेरी ज्ञान पिपासा को
भेदा मेरी दुविधाओं के बादलों को
मिटा डाले सभी संशय और भ्रम इसी धरती पर
मेरे अस्तित्व और ब्रह्माण्ड के रहस्यों के
उत्तरित हुए प्रश्न सभी
तब किया जाकर आलिंगन मैंने परम पवित्र चेतना का
हुआ सफर आरम्भ दो अभिन्न सहयात्रियों का
एक-दूसरे को जानते हुए महसूस करते हुए
एक ही समय में एक ही विचार से सचेत
आत्मा के अहसास समेत
वह सोच जो सोची नहीं जा रही
वह विचार जो विचारा नहीं जा रहा
एक सौंदर्यमय होनी अद्भुत चमत्कृत होनी
न दुविधा न ध्रुवीकरण पूर्ण निरंतरता नित्यता
अब है निवास मेरा पूर्ण विलय के केंद्र बिंदु में
एक ऊर्जा पुंज सभी ऊर्जा स्तरों पर तिरता सा
सहजता से क्षण के तत्व समेत उभरता सा
ओ प्रकृति मेरे प्यार कितना सरल हुआ यह सब
मैं मुड़ी तुम्हारी ओर तुमने पकड़ मेरा छोर
बनाया अपनी ही तरह दाता मुझे
पर मैं तो दाता नहीं
पूर्ण समर्पण में हूँ बस मैं तो
बनी हुई दृष्टा परमदाता की अनुकम्पा की
पूर्ण कृतज्ञता में नतमस्तक
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ