यह कैसी विडंबना है कि अर्जुन को तो, बिना किसी मंदिर के, खुले मैदान में ही, श्रीकृष्ण की वाणी जो सिर्फ एक बार ही बोली गई, ऐसी एक ही गीता ने जगा दिया। और आज जबकि लाखों गीताएं पढ़ी-सुनी जा रही हैं हजारों कृष्ण मंदिर हैं फिर भी कर्म के लिए तत्पर जागरण की लहर उछाल क्यों नहीं लेती। शायद अर्जुन भ्रमित है, क्योंकि उदाहरण स्वरूप कहाँ हैं? जो सत्य उदाहरण स्वरूप हैं भी, उनका दर्शन व प्रवेश भयभीत कर देता है असत्य का दुर्ग अपने चारों ओर बनाए हुए बैठे कर्महीनों को। आज के अर्जुन को अपने प्रश्नों के उत्तर आज के संदर्भ में चाहिए। उसे पढ़ी-पढ़ाई बात नहीं चाहिए। बातों का, ज्ञान का व अहंकार का विस्तार नहीं चाहिए। उदाहरण चाहिए गीता पढ़ाने वालों को भी उदाहरणस्वरूप बनना ही होगा।
जागो भारतीयों जागो, पद और राजशक्ति के मद में चूर आपसी फूट में पड़कर, सत्य को दबाकर, तुम सदा ही पथ-भ्रष्ट होते रहे हो। अनेकों संत ज्ञानी तुम्हें रास्ता बताते रहे तुम्हारी संस्कृति की पहचान बताते रहे। पर तुम अपनी लालसा में लिप्त अपने लिए नरक के द्वार खोलते रहे। गुण्डाराज स्थापित कर दिया नतीजा तो भुगतना ही होगा। इस भंवर से तभी निकल पाओगे जब सत्य योग्यता को सामने लाओगे। अपनी लोभी ईर्ष्यालु बुद्धि का मार्गदर्शन छोड़कर सच्चे मन में देशभक्ति का दीप जलाओगे। सत्य पथ का राही कभी भी अपना मार्ग नहीं छोड़ता चाहे समाज नकारे या स्वीकारे क्योंकि वह जानता है कि उसकी साधना अवश्य रंग लाएगी जो उसको स्वयं को तो प्रकाशित करेगी ही और समय आने पर औरों को भी मार्ग दिखाएगी।
यह प्रकृति का अटल सत्य व नियम है। जब-जब प्रश्न अपनी चरम सीमा पर होते हैं उत्तर भी अवश्य ही आसपास ही होते हैं। बस समय का वह हथौड़ा चाहिए जो यह घंटी बजा दे। काल की गति रुकती नहीं वह अपने सत्य की स्थापना के लिए शक्ति रूप माध्यम ढूँढ़कर तैयार कर ही लेती है चाहे असत्यता का साम्राज्य कितना ही बड़ा क्यों न हो। यह परमशक्ति उस माध्यम को समझने वाले अर्जुन को भी तैयार करके ही छोड़ती है। इसी से कहा जाता है ‘समय बड़ा ही बलवान होता है-
कौन रोकेगा प्रणाम को
प्राणों के आयाम को
वेद भारत के आवाम को
सतयुग के आह्वान को
काल की गति को,
सत्य-कर्म की मति को,
नवज्योति के प्रकाश को,
मानवता के उत्थान को।
सबको अपने-अपने अहम को त्याग सत्य-पथ का राही बनना ही होगा। पहले विद्वानों और मनीषियों के अहंकार ने मानव समाज को संप्रदायों व समुदायों में बाँटकर आपस में भिड़ा दिया। ज्ञान के व पद के मद में आकंठ तक डूबे सब गुरु आचार्य महाभारत के युद्ध में नष्ट हो गए। यही कृष्णेच्छा थी। फिर जो विष पाश्चात्य अंधानुकरण का भारतीय संस्कृति में फैल गया उसे अनेक गुरु भी न मिटा सके।
गुलामी के थपेड़े खाकर भी अक्ल न आई सब मनीषी अपनी- अपनी ढपली अपना-अपना राग लेकर बैठ गए। उपाधियाँ बटोरना, गद्दियाँ समेटना ही मापदण्ड बन गया गुरु पद का। बेचारा मानव, अर्जुन जैसे प्रश्न लिए कभी इस द्वार तो कभी उस द्वार भटकने लगा। सीधी-सी बात सत्य, कर्म व प्रेम की न समझाकर, दीन-धर्म पाप-पुण्य रीति-रिवाजों में उलझा दिया। इतना विस्तार कर दिया धर्मों का कि मुद्दे की बात ही खो गई।
अब समय आ गया है कि जब दुर्भाव हटा कर सच्चे मन से माँ भारती की पुकार सुने इस पावन भूमि को असत्य के राक्षसों से रहित करें। कोई छोटा-बड़ा ज्ञानी अज्ञानी नर-नारी भेद नहीं, धार्मिक कट्टïरता नहीं सब शुद्ध मानव धर्म वाले सच्चे अंत:करण वाले आएँ। शहीद होते हो तो हो जाओ। असत्य के खिलाफ मशाल जलती रहे। एक गिरे तो दूसरा उठा ले। झुकना नहीं है टूटना नहीं है-
जो साथ न सत्य का दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
राही थके पर सत्य-कर्म व प्रेम की राह अमर।
अब आत्मा की आज़ादी का महायुद्ध है, प्रणाम आह्वान करता है, सच्चे इंसानों का जिनका धर्म सिर्फ इंसानियत है। मन से शंका निकाल दें कि अब कुछ नहीं हो सकता, कि राजनीति भले आदमियों की जगह नहीं कि बिना पैसा कोई पूछता नहीं, कि सच्चाई व ईमानदारी का मोल नहीं।
मानवता पुकार रही है झूठ को समझ भी रही है, नकारने की शक्ति मांग रही है। श्री अरविंद के दर्शन के अनुसार महाकाली शक्ति जागृत हुई है, झूठ के विनाश के लिए। समय करवट ले रहा है। झूठ ही झूठ को मारेगा। सत्य का रास्ता आसानी से साफ होता ही जाएगा जो अपने सत्य को जानकर सत्य मार्ग अपनाएँगे। उन्हें दिव्यता स्वयं वरण कर शक्ति स्रोत बनाएगी।
अब वही मानव उन्नत भविष्य की ओर अग्रसर होंगे जो सत्यमय, प्रेममय व कर्ममय होंगे। वेद-विज्ञान सत्य-ज्ञान सब एक ही होंगे। असत्य तथा अपूर्णता को जाना ही होगा। आओ, माँ भारती की लाज रखें उन्हें पुन: अलंकृत करें। महाशक्ति की पुकार पर एकजुट होकर हम-सत्य का धर्म निबाहें, सत्य कर्म-धर्म करें।
समान अधिकार हो, सत मानवों का सम्मान हो
राजनीति देश के हित की नीति हो
उन्नति में ही सर्वजन की प्रीति हो
सत्कर्म में ही लक्ष्मी बरसती हो
भारती माँ का आंचल हरा रहे, सर्वत्र प्रेम ही प्रेम बढ़े।
हृदय पुलक से भरा रहे, प्राण शक्ति से प्रणाम बढ़ता रहे।
धरती पर प्रणाम ही प्रणाम हो
हम सबका यही प्रणाम हुआ।
सत्यमेव जयते
वन्देमातरम्
- प्रणाम मीना ऊँ