ज्ञान भक्ति और कर्म

ज्ञान भक्ति और कर्म

हे मानव!
जान इनका सत्यस्वरूप क्योंकि यही है नवयुग की ओर अग्रसर होने का मर्म। कलियुग में सिर्फ वो ही विद्याएँ पार लगाएँगी जिनमें अपने आप पर ही काम करना होता है और यह सब तभी सम्भव होगा जब हम प्रतिपल इसके प्रति सजग रहेंगे ध्यान-योग के द्वारा। सतयुग की ओर बढ़ते समय के चुपचाप कदमों के साथ केवल वे ही कदम मिला पाएँगे जो ज्ञान, भक्ति व कर्म में पूर्णता लाने की तपस्या करेंगे। यह तपस्या कर्मकांडों या बाह्य आडंबरों से नहीं करनी है। केवल अपनी वास्तविकता के प्रति चैतन्य रहना है।

ज्ञान की पूर्णता तभी होती है जब अपरा ज्ञान व परा ज्ञान दोनों का ही ज्ञान हो और इनके समन्वय से ध्यान, विवेक और सद्बुद्धि जागृत हो जाए। जिसे नानक जी ने ज्ञान-ध्यान और तत्वबुद्धि कहा। अपरा ज्ञान वह है जो भौतिक संसार से प्राप्त कर लिखा व पढ़ा जाता है। परा ज्ञान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। जिसे केवल अपने से परे, सुख-दुख से परे, अपने-पराए से परे, अपने होने न होने से परे जाकर ही पाया जा सकता है। जो प्रभु कृपा से ही झरता है एक निश्चय वाली बुद्धि के मानव पर।

भक्ति की पूर्णता का सही अर्थ है निश्छल पवित्र व अमृतमय प्रेम, जड़ से चेतन से बस प्रेम ही प्रेम। ऐसे दिव्य प्रेम में जब पूर्ण समर्पण का योग हो जाता है तभी सच्चा भक्ति-योग जागृत होता है।

कर्म की पूर्णता, ब्रह्माण्ड विष्णु महेश इस पूर्णता के ही तो प्रतीकात्मक स्वरूप हैं। इसी कारण से तो सृष्टि का संचालन पूर्णतया व्यवस्थित है। रोज़ नई कुछ कृति (क्रीएट) कर, कृतित्व का आनन्द पा ब्रह्मï हो जा। कृतित्व (क्रिएशन) को पूर्णता की ओर ले जाकर विष्णु हो जा, लक्ष्मी पैर दबाएगी पर लक्ष्मी को सिर न चढ़ा। कृतित्व और पूर्णता का सुख पा लेने पर संतुलन का डमरू बजा। तांडव कर विद्रूपता, विषमता व कुरूपता का संहार कर। ध्यान-योग द्वारा शक्ति जागृत कर, आज्ञा-चक्र का तीसरा नेत्र खोलकर, अपूर्णता को भस्म कर, शिव होकर, सत्यम् शिवम् सुंदरम् विश्व की रचना करने का कारण बन जा।
सदा ध्यान रहे :-
क्या राजा क्या राज्य सब सीमित हैं
पूर्ण भक्तिवान का साम्राज्य ब्रह्माण्ड है
ब्रह्माण्डों से भी परे का परा ज्ञान पा
पूर्ण ज्ञानी करे दिगदिगान्तर विजय
पूर्ण प्रेमी जीते दिलों का साम्राज्य
बनकर उन्हीं का हिस्सा यही है किस्सा
ज्ञान भक्ति व कर्म की प्रभुताई का।


सबमें दिव्यता का अंश है उसी दिव्यता को बस जगाना भर ही तो है। अपने सत्य को जानना और स्वीकारना पहली सीढ़ी है जो केवल ध्यान द्वारा ही संभव है। यह ध्यान रखना है कहाँ-कहाँ, कब-कब प्रकृति के नियमों से चूके। इतना सा ही ध्यान कर लेने पर प्रकृति स्वयं ही रास्ता दिखाती है, सहायता करती है। यही तो होती है प्रभु कृपा अनंता, इसी को तो अनुभव करना है। यही है सत्य, यहीं है सत्य। यह मान ले ओ मानव इसी में कल्याण है। हे मानव! यह तीनों तेरे अंदर ही तो हैं।

  • प्रणाम मीना ऊँ

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