सर्वशक्तिमान के समक्ष सम्पूर्ण समर्पण भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है। इस प्रकार की भक्ति में भक्त हर स्थिति एवं परिस्थिति को ईश्वर के प्रसाद स्वरूप ग्रहण करता है। इसका तात्पर्य है – अपनी शारीरिक मानसिक व आत्मिक शक्तियों को एकाग्र कर इन शक्तियों का उपयोग प्रत्येक क्षण को पूर्णता से जीने में करना। यहाँ आध्यात्मिकता का अर्थ है – कोई भी कार्य सही दशा व पूर्ण विश्वास के साथ करना। कोई भी स्थिति या परिस्थिति बेकार या महत्वहीन नहीं होती उसमें कोई न कोई गूढ़ संदेश अवश्य छिपा होता है।
ईश्वर की यह सृष्टि त्रुटि रहित है, हमें यह बात समझनी चाहिए क्योंकि जब एक देवदूत स्वर्ग से वंचित हुआ तो उसे मोची के रूप में इस दुनिया में जन्म मिला ताकि उसे यह अहसास हो सके कि यह सर्वशक्तिमान भगवान के विवेक पर प्रश्नचिह्न लगाने का परिणाम है। उस देवदूत का इतना आत्मिक विकास हो चुका था कि वह परम प्रभु के योग से केवल एक सोपान की दूरी पर था।
ईश्वर ने पृथ्वी पर एक युवती की तरफ इशारा करके उस देवदूत से कहा था कि वह अभी उस युवती की आत्मा को लेकर आए, क्योंकि अब उसके मरने का समय हो गया है। जब वह देवदूत उस युवती के घर पहुँचा तो उसने वहाँ एक हृदय-विदारक दृश्य देखा। वह युवती फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए थी, वह तीन महीने के एक शिशु को अपनी बाँहों में झुला रही थी और अपनी अन्य दो बच्चियों, दो और चार वर्ष की, को भी चुप कराने की कोशिश कर रही थी जो भूख से बिलख रही थीं। उस युवती के सभी बच्चे कुपोषण के कारण पीले पड़ गए थे। खाने के लिए घर में एक दाना भी नहीं था। उस युवती का पति कुछ महीने पूर्व ही मर चुका था, जो उस घर की आजीविका का एकमात्र सहारा था। अत: वह युवती अकेले अपने तीनों बच्चों की देखभाल करने में पूर्णरूप से असमर्थ थी। इस समय उसे तेज ज्वर भी हो रहा था फिर भी वह अपने तीनों बच्चों की देखभाल कर रही थी।
उस युवती की दयनीय स्थिति देखकर उस देवदूत की आँखें भर आईं। वह इतना निर्दयी भी नहीं था कि उन बेसहारा बच्चों से उनका एकमात्र सहारा उनकी माँ को उनसे छीन ले! अत: उन बच्चों के प्रति उस देवदूत में उदारता- दया एवं करुणा उत्पन्न हो गई और उन बच्चों का भला सोचते हुए उस देवदूत ने खाली हाथ स्वर्ग जाने का निश्चय किया।
उस देवदूत की इस अवज्ञा से ईश्वर उस पर कुपित हो गए। क्योंकि दिव्यता का प्रत्येक कार्य प्रेम एवं करुणा से परिपूर्ण होता है। अत: ईश्वर ने अपने सर्वोच्च कानून, नियम का उल्लंघन और सृष्टि से छेड़छाड़ करने की गलती का अनुभव कराने का निश्चय करते हुए उस देवदूत को पूरा जीवन मोची बनकर जीने के लिए पृथ्वी पर भेज दिया। पुन: स्वर्ग वापस आने और ईश्वर का सामीप्य पुन: प्राप्त करने के लिए उस देवदूत को अपने ऊपर तीन बार हंसना होगा। यही परम आज्ञा हुई।
इस प्रकार उस देवदूत ने पृथ्वी पर एक मोची परिवार में जन्म लिया। वह जूता बनाने के बदबूदार चमड़े को पीटते हुए बड़ा हुआ। एक दिन वह बैठकर जूता बना रहा था कि उसे अपनी इस स्थिति की विडंबना पर हँसी आ गई। स्वर्ग में रहने वाला देवदूत पृथ्वी पर नश्वर मनुष्यों के लिए पशुओं के चर्म से जूते बना रहा है। अस्तु, तर्क-वितर्क छोड़कर देवदूत ने उस स्थिति को स्वीकार कर लिया तथा नारकीय जीवन जीते हुए सर्वशक्तिमान भगवान के समक्ष स्वयं को पूर्णत: समर्पित कर दिया और पूरा मन लगाकर अपना कार्य करने लगा – चाहे वह चमड़ा पीटने का हो या जूते बनाने का।
शीघ्र ही वह अपने कार्य में इतना कुशल हो गया कि उसके मालिक और ग्राहक सभी उसके कार्य की प्रशंसा करने लगे और एक दिन उसे राजा के जूते बनाने को कहा गया। फिर क्या था, देवदूत ने अपना मन हृदय व आत्मा तीनों उस काम में लगा दिये और सबसे सुंदर चप्पलों की एक जोड़ी तैयार कर दी परंतु उसके मालिक ने इसे देवदूत की लापरवाही बताते हुए कहा कि उसे जूते बनाने का आदेश दिया गया था और उसने जूतों की जगह चप्पल बनाने में व्यर्थ में ही चमड़ा और समय बरबाद कर दिया। तभी राजा के वे सेवक भी वहाँ उपस्थित हो गए जिन्होंने देवदूत को जूते बनाने का आदेश दिया था।
यह जानकर प्रत्येक व्यक्ति को आश्चर्य हुआ कि राजा के सेवकों ने जूतों की अपेक्षा चप्पलें मांगीं। राजा तभी-तभी मर गया था। दाह संस्कार से पहले राजा के शव को पहनाने के लिए चप्पलें चाहीं। उन दिनों ऐसी परंपरा थी कि राजा की अंतिम यात्रा के समय उसे जूतों की अपेक्षा चप्पलें पहनाई जाती थीं। यह देखकर देवदूत अवाक् रह गया। ईश्वर की रचना और योजना में कुछ भी निरर्थक या अर्थहीन नहीं है। यह सोचकर देवदूत दूसरी बार हँसा। जैसे जैसे दिन बीतने लगे देवदूत सुंदर एवं टिकाऊ जूतों के लिए विख्यात हो गया।
एक दिन एक धनी महिला अपनी तीन सुंदर पुत्रियों के साथ उस देवदूत की दुकान पर आई और उसने अपनी पुत्रियों के लिए फैंसी जूते-चप्पलों का आदेश दिया। उसकी तीनों पुत्रियों की आयु विवाह-योग्य थी। जब देवदूत ने उस भद्र महिला से पूछा कि क्या ये तीनों लड़कियाँ उसकी अपनी पुत्रियाँ हैं तो उस महिला ने बताया कि वह एक धनी व्यापारी की पत्नी है लेकिन उसके कोई संतान नहीं हुई तभी एक दिन उसके पड़ोसियों ने उसे तीन बेसहारा बच्चों के बारे में बताया कि बचपन में ही उन बच्चों के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था।
उसे लगा कि सर्वशक्तिमान भगवान ने उसकी प्रार्थनाओं का फल उसे दे दिया है। उसने उन तीनों बेसहारा बच्चियों को गोद ले लिया। वास्तव में ये तीनों लड़कियाँ उसी महिला की थीं जिसकी आत्मा को लाने के लिए ईश्वर ने देवदूत को भेजा था। ईश्वर का यह करिश्मा देखकर देवदूत तीसरी बार अपने आप पर हँसा। देवदूत के लिए यह एक संकेत था कि प्रत्येक स्थिति को ईश्वर का उपहार समझकर उसके समक्ष पूर्ण समर्पण कर देना चाहिए तत्पश्चात् अपनी पूरी सामर्थ्य एवं क्षमता के साथ जीना चाहिए।
उस देवदूत को धरती पर इसीलिए जन्म लेना पड़ा क्योंकि वह ऐसा करने में असफल हो गया था। लेकिन बाद में उसे मनुष्य जीवन में पूर्ण समर्पण के कारण अपने किए पर हँसने के अवसर मिले। उसके जीवन का उद्देश्य अब पूर्ण हो चुका था। अब वह पुन: स्वर्ग जाने के लिए तैयार था जहाँ ईश्वर बाँहें फैलाए उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वह पूर्णरूप से जानता था कि अब वह सर्वदा के लिए ईश्वर के साथ होगा। उसने यह पाठ सीख लिया था कि पृथ्वी पर सभी मानव अपने कर्म-चक्र के अनुसार ही है, जो जन्म और मृत्यु का कारण है। जब वो अपने सभी कर्मों को ईश्वर को अर्पण करके बिना किसी शंका, संदेह या प्रश्न के ईश्वर के समक्ष पूर्ण समर्पण कर दें तो सत्य स्वयं उद्घाटित होता जाता है।
यही सच्ची अनुभूति है।
यही जीवन का सार है।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ